सुबह और शाम खुली हवा में घूमना बचपन से ही बहुत प्रिय रहा है मुझे । इसका कारण शायद पहले खुले आंगन और खुली छत वाले घर में रहना रहा होगा । शहर में आ कर अपना यह शौक मैं अपने आवासीय कैंपस के 'पाथ वे' में घूम कर पूरा कर लेती हूँ । आज कल वैश्विक महामारी के चलते घूमना बंद है मगर कमरे की खिड़की से दिखते 'पाथ वे' को देखते समय एक दिन की घटना का स्मरण हो आता है । कैंपस में बने बॉस्केटबॉल ,फुटबॉल या टेबल टेनिस कोर्ट में शाम के समय अक्सर बच्चों की टोलियां मिल जाती थी क्योंकि शाम के बाद तो वहाँ उनके अभिभावकों का आधिपत्य होता था अतः शाम का समय उनके शोर-शराबे से गुलज़ार रहता । उस दिन बच्चों के ग्रुप के बीच एक औरत खड़ी मोबाइल पर कुछ करती दिखाई दी, दूसरे राउंड में भी उसे वहीं खड़े देखकर कुछ अजीब सा लगा कि क्यों बच्चों का रास्ता रोके खड़ी है दूर खड़ी होकर भी बात कर ही सकती है मगर कैंपस में रहने वालों के लिए सार्वजनिक जगह जो ठहरी और उस पर किशोरवय के बच्चे खेल रहे हो तो किसी का भी उस जगह का उपयोग करने का समान हक है यहाँ वर्जना अस्वीकार्य सी है । अगले राउंड तक माहौल अन्त्याक्षरी जैसा हो गया बच्चों का झुण्ड एक तरफ और महिला दूसरी तरफ मगर जो कानों ने सुना वह अप्रत्याशित था , बच्चे --- “But aunty , we are seniors .और महिला बराबर टक्कर दे रही ही थी---- O…, excellent . listen to me you are also kids. गर्मा गर्म बहस सुन कर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँची कि महिला का बेटा जो उन बच्चों से बेहद छोटा था बास्केट बॉल खेलना चाह रहा था जिसके चलते बड़े बच्चों को परेशानी हो रही थी और समस्या यह थी कि दोनों पक्षों में से कोई भी पीछे हटने को कोई तैयार नही था । बच्चों का महिला से इस तरह बहस करना सही भी नहीं लग रहा था ।
घर की तरफ लौटती मैं सोच रही थी कि अधिकार भाव के लिए सजगता कहाँ अधिक थी । Morality के मानदण्ड पर तो दोनों पक्ष ही गलत थे ऐसे में चलते चलते रहीम जी का दोहा ----छमा बड़न को चाहिए ,छोटन को उत्पात …याद आ गया और उसी के साथ बच्चों का पलड़ा भारी हो गया ।
XXXXX
जी रोचक संस्मरण। कई बार बच्चों को साथ खिलाने में दिक्कत ये होती है कि ना चाहते हुए भी उनके चोट लगने का खतरा रहता है। इसलिए थोड़ी बड़ी उम्र के लड़के खिलाने से झिझकते हैं क्योंकि अगर लग वग गयी तो फिर बच्चों के माँ बाप से डांट अलग सुननी पडती है। फिर कई बार बच्चे के होने से एक तरह की असहजता रहती है। वो खुलकर आपस में बात नहीं कर सकते। इस कारण भी दिक्कत होती है। शायद इन्हीं कुछ वजुहातों के चलते वो मना कर रहे होंगे। हम लोग तो इसलिए करते थे।
ReplyDeleteसही विकास जी ! डर शायद सभी को यहीं होता है और बच्चों की मम्मियाँ भी समय चाहे कब का ही हो एक ही तरह से ही झगड़ती हैं ।
Deleteसही कहा क्षमा बड़न को चाहिए पर आजकल क्षमा न कोई देना जानता है न लेना...।क्षमा का मतलब ही बदल गया है यदि कोई क्षमा करते हुए चुप है तो दूसरा उसकी चुप्पी को डर समझता है...।और ऐसे ही क्षमा माँगने वाले को भी डरपोक कहलाने का डर है इसी वजह से सब खींचकर बड़े बन रहे हैं अब छोटा या बड़ा कोई है ही नहीं।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर सार्थक संस्मरण।
वर्तमान दौर के कटु सत्य को दर्शाती सारगर्भित प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार सुधा जी ।
Delete" अधिकार भाव के लिए सजगता कहाँ अधिक थी । Morality के मानदण्ड पर तो दोनों पक्ष ही गलत थे ऐसे में चलते चलते रहीम जी का दोहा ----छमा बड़न को चाहिए ,छोटन को उत्पात"
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने,अक्सर ये देखने में आता है कि-बच्चे तो बच्चे बड़े भी अपनी शालीनता भूल जाते हैं और उस पल हम जैसे ये सोचते रह जाते हैं कि-समझाये भी तो किसे। बहुत ही सुंदर,एक छोटी सी आपबीती से कितनी बड़ी बात कह दी आपने। सादर नमन आपको मीना जी
सृजन को सार्थकता देती आपकी अनमोल प्रतिक्रिया से लेखन को मान मिला कामिनी जी! सादर नमस्कार सहित बहुत बहुत आभार ।
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार (११-०९-२०२०) को '' 'प्रेम ' (चर्चा अंक-३८२२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
चर्चा मंच पर सृजन को सम्मिलित करने हेतु सस्नेह आभार अनीता!
Deleteयही सब बदला है समय के साथ स्वीकार करना ही पड़ेगा।
ReplyDeleteसत्य वचन सर! समय के साथ यह सब स्वीकार करना ही पड़ेगा।बहुत बहुत आभार आपकी अमूल्य सीख भरी प्रतिक्रिया हेतु ।
Deleteबहुत ही रोचक संस्मरण।
ReplyDeleteउत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार सर!
Delete