सावन के आते ही रिमझिम बारिश के साथ तीज-सिंधारा पर्व , जगह जगह पेड़ों पर पड़े झूले और माँ का चेहरा स्मृतियों में साकार हो उठता
है उस समय लहरियों के कपड़ों के साथ मेहन्दी की महक एक अलग सा समां बाँध देती थी सावन माह में । तब मैं इतनी बड़ी नहीं थी या फिर समझ नहीं थी कि माँ से कभी फ़ुरसत में यह सवाल करूँ कि - “ आप कितना प्यार करती हो मुझे ।”
मेरा यह प्रश्न पूछना और माँ से उत्तर पाना शायद समय की लकीरों में नहीं था मगर उन्हीं लकीरों में वो पल ज़रूर निहित थे जिनमें रिमझिम बारिश के साथ माँ की वात्सल्य युक्त स्मृतियाँ दिल की ज़मीन को हर सावन में भिगोये रखतीं हैं ।
माँ की ममता की गागर मेरे लिए पहली बार मैंने तब छलकती अनुभव की जब बड़े प्यार से उन्होंने झूले पर बैठाते हुए मुझे सतर्क किया “डोर कस कर पकड़ना ।” झूले पर बैठते ही दूसरी लड़की ने जैसे ही
पेंग बढ़ाने को पैरों से जोर लगाया मेरा कलेजा डर के मारे बाहर और
मेरी चीख से पहले माँ जोर से चिल्लाईं -“झूला रोको ।”
झूले से मुझे उतार कर गले लगा आँसू पोंछते हुए हैरानी से माँ ने पूछा - “तुझे डर लगता है झूले से..!” मेरे बालमन को अपनी हमउम्र लड़कियों के बीच शर्मिंदगी भी महसूस हो रही थी अपने डरपोक होने पर …, सो सफ़ाई देते हुए मैंने कहा - “हाथ से डोर छूट रही थी ।” घर आने पर
भाई ने हँसी उड़ाई - “डरपोक कहीं की ।”
अगले दिन स्कूल से आई तो आँगन में बल्लियों के आधार पर स्कूलों के मैदानों जैसा झूला मानो इन्तज़ार कर रहा था मेरा । मैं विस्फारित नज़रों से झूले को निहार रही थी कि पीछे से माँ की खनकती आवाज़ सुनाई दी -“धूप ढलने दे…,धीरे-धीरे झूलना ।जब झूले पर बैठेगी तो
डोर पर हाथों की पकड़ अपने आप मज़बूत होती चली जाएगी ।” मानो वह अपनी लाडली को किसी भी क्षेत्र में कमजोर नहीं देखना चाहती थी ।
माँ नहीं रहीं और न ही झूले वाला आँगन रहा , बस यादें हैं जो आज भी सावन की रिमझिम बरसती बूँदों के रूप में
टिपर..,टिपर..,टापुर..,टापुर.., करती मनमस्तिष्क के कपाटों पर दस्तक देने लगती हैं ।
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