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Thursday, December 8, 2022

“धुआँ”

 


राधिका शाम को अक्सर छत पर चली आती है । सांझ के तारे 

को देखने के साथ पास-पड़ौस के घरों से उठता धुआँ देखना उसे 

बड़ा भला लगता है । वह अनुमान  लगाया करती है कि कौन से घर 

में सबसे पहले खाना बनना शुरू होगा । उसकी सहपाठिन सहेलियाँ क्या कर रही होंगी अपने घरों में । वह दो दिन से देख रही थी श्यामा काकी के घर से किसी तरह की सुगबुगाहट नहीं थी ।कल स्कूल से आते वक़्त उनके घर का दरवाज़ा भी खुला देखा मगर सांझ के समय उठता धुआँ  नहीं देखा छत की मुँडेर थामे वह यह सोच ही रही 

होती है कि माँ की आवाज़ आती है - “अब आ भी जा नीचे., 

अंधेरा हो रहा है !” 

-  “आई माँ !” कहते हुए वह सीढ़ियों से फुर्ती से उतर कर माँ के आगे आ खड़ी हुई ।

- “ स्वेटर पहन ले ! तेरा नया कार्डिगन बन गया , देखूँ तो कैसा लग रहा है ।रोज पूछती है कब पूरा होगा और आज बन कर तैयार हो 

गया तो एक बार भी नहीं पूछा ।” माँ की बात पूरी होती उससे पूर्व राधिका गाजरी रंग के कार्डिगन में माँ के आगे फिर से आ खड़ी हुई ,चमकती आँखों से वह मानो माँ से पूछ रही थी -“कैसी लग रही 

हूँ माँ !” 

   - “खाने में क्या बना रही हो माँ.., भूख लगी है जोर से ।” 

नमकीन चावल …, छत पर खड़ी थी तब नहीं लगी ।” मुस्कुराती हुई माँ बोली और गोभी , आलू काटने के लिए स्वयं के आगे और मटर की टोकरी के साथ प्याला उसकी ओर बढ़ा दिया मटर छिलने के लिए । 

अचानक उसे जैसे ही कुछ याद आया छिले मटर के दाने प्याले में डालते हुए बुदबुदा उठी -“ माँ श्यामा काकी है तो यही मगर उनके 

घर से धुआँ नही उठ रहा शायद उनके घर गैस का कनेक्शन लग 

गया है ।”

 उसकी बात सुनते ही माँ की आँखें सोच में डूब गईं और वे गहरी साँस लेते हुए उठी -  “जहाँ बिजली के कनेक्शन की बात दूर की कौड़ी हो वहाँ गैस कनेक्शन की बात करती है लड़की !” कहने के साथ ही उन्होंने छिले आलू और गोभी पानी में डाले और राधिका से कहा -मेरे साथ चल ।”

        थोड़ी देर बाद  तौलिए से ढकी अनाज की भरी बाल्टी और भगौने भर आटे के साथ चिन्ता में डूबी माँ के साथ  गाजरी कार्डिगन की जेबों में हाथ डाले चलती राधिका नमकीन चावल की बात भूलकर श्यामा काकी के घर की ओर कदम बढ़ाते हुए खुश थी कि कल शाम छत पर सांझ के तारे के साथ उनके घर से उठता 

धुआँ देख सकेगी ।

                                 ***

Tuesday, November 8, 2022

“मंदी”



- “कैसे हो ? बहुत दिन हुए तुमसे बात नहीं हुई ?

हाल - चाल.., ठीक -ठाक ?” आदित्य के फ़ोन उठाते ही दूसरी ओर से उसके मित्र अनुज ने कुशल - क्षेम पूछी ।

   आदित्य - “सब कुछ ठीक -ठाक मगर न जाने क्यों .., आजकल सूरज की रोशनी में नहाई  SNN की झील में पड़ती परछाई और उसमें तैरते पक्षी मन में ऊर्जा नहीं भरते । सड़क पर दौड़ती गाड़ियों की तरह मन में विचारों का ट्रैफ़िक जाम सा रहता है । तुम सुनाओ.., तुम्हारे क्या हाल है?”

      “फॉल्सम आजकल अपना नही बेगाना लगने लगा है 

आदित्य ! चारों ओर बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों  को खा रही 

हैं ।” उधर से आती आवाज गहरी हो गई ।

         फ़ोन डिस्कनेक्ट नहीं हुए मगर दोनों के बीच  संवाद का स्थान नीरवता ने ले लिया और चिन्ता में डूबी उनकी सांसें  मानो वार्तालाप में सेतु का काम कर रही थीं । सुरसा के मुँह सरीखी फैलती महंगाई के बीच “आर्थिक मंदी” की भयावहता की सुनामी उनके बीच पसरी पड़ी थी ।


    

                                   ***





Friday, October 7, 2022

“फैशन”



-“आज तेरी एक चोटी बना देती हूँ .., अभी बहुत काम पड़े 

हैं ।”  कान पर कंघी रखे माँ रेवा की चोटियाँ खोलती हुई व्यस्त भाव से कहती हैं ।

          “नहीं.., दो चोटी और वह भी झूले वाली जो इन्टरवल में सीनियर्स खोल न सके । स्केल से नापती हैं चोटी और पूछती हैं क्या खिलाती हैं तेरी माँ ? तेल कौन सा..,शैम्पू का नाम ..,और देर हो जाएगी तो प्रीफेक्टस रोक लेंगी प्रेयर हॉल के बाहर .., फैशन बना के आती है लम्बे बाल हैं  तो .., टीचर की डॉंट अलग से।  कम्पलसरी है गुँथी चोटियाँ ।” 

         रेवा कटर से पेन्सिल छिलती हुई एक साँस में बात पूरी करने की कोशिश कर ही रही होती है कि माँ बालों में कंघी चलाती हुई कहती हैं -  अच्छा बाबा ! साँस ले ले …, अभी आधा घण्टा बाकी है दस बजने में .., पहुँच जाएगी स्कूल ।”

       “ओय रेवा ! दस मिनट बचे हैं दस बजने में.., चल भागते हैं जल्दी से नहीं तो लेट हो जाएगी ।” भाई की आवाज़ से उसकी तन्द्रा टूटी और आईने के सामने कंघी रख वहाँ रखा हेयर बैंड बालों पर डालते हुए उसने जल्दी से कंधे पर बैग डालते हुए कमरे का गेट बन्द किया ।

                 रोटी बनाते हाथों पर लगा रह गया आटा खुरच कर अंगुलियाँ झटकती रेवा आंगन से गुजरते हुए आँखों में आया पानी भी उतनी ही निर्ममता और लापरवाही से झटक देती है जब चाची को दादी से यह कहते सुनती है - “लड़की के पर निकल आए हैं .., फैशन में डूब कर कैसे छोटे छोटे बाल करवा आई है लड़कों सरीखे । बिना रोक -टोक बच्चे हाथ से निकल जाते हैं ।”


                                    ***

Friday, September 30, 2022

“नेह के धागे” (कहानी)



मंदिर में हाथ जोड़े और आँखें बन्द किए मैं मन को एकाग्र

 करने का प्रयास कर ही रही थी कि कानों में धीमी मगर स्पष्ट सरगोशी सुनाई दी - ‘स्टेच्यू ‘। ध्यान टूटते ही मैंने पीछे मुड़कर देखा तो मेरे पीछे एक किशोरवय का लड़का खड़ा मुस्कुरा

 रहा था।अजनबी होने के बाद भी उसकी मुस्कुराहट और ‘स्टेच्यू’ बोलने का तरीका जाना-पहचाना लगा अचानक याद आया कि

   कुछ वर्ष पहले मैं उसके पड़ोस में रहा करती थी और वो गर्मियों में अपने मम्मी-पापा के साथ अपने पैतृक घर आया करता था। उसका दिन का अधिकांश समय मेरे घर मेरे और मेरे बच्चे के साथ बीतता था मैं यह सब सोच ही रही थी कि प्रणाम की मुद्रा में झुकते हुए उसने कहा-’आण्टी पहचाना ?’ स्नेह से उसके सिर पर हाथ रखते हुए मैंने उसका वाक्य पूरा करते हुए कहा - ‘करण’ । उसके साथ मंदिर की सीढ़ियाँ उतरते हुए कहा- तुम्हे कैसे भूल सकती हूँ ? चिड़िया से पहले अण्डा आया या पहले चिड़िया आई, दोनों में से पहले कौन आया जैसे सवाल तुम्ही तो पूछ सकते थे। मेरी बातों का सिलसिला वहीं रोकते हुए उसने पूछा- ‘आपने वो घर क्यों छोड़ दिया ? मैं जब भी आता हूँ उस घर को देखकर आपकी और भैया की याद आती है । उसकी बातों को अनसुना करते हुए मैंने अपने घर का पता बताया और उसको मम्मी के साथ आने का 

न्यौता भी दे दिया।

         घर जाते रास्ते में मैं सोचती जा रही थी उस से जुड़ी वे बातें जो मैं समय के साथ भूल गई थी इस कस्बेनुमा शहर में 

मेरे घर के ठिकाने की जरुरत तो उसको तब भी नही पड़ी थी जब वो सात-आठ साल का था। मुझे घर बदले साल भर हो गया था कि एक दिन शाम के समय दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी। दरवाजा खोला तो सामने अपरिचित व्यक्ति खड़ा दिखा, काम पूछने पर उस व्यक्ति ने अपने पीछे खड़े बच्चे को आगे करते हुए कहा-’जी ये बच्चा आपका नाम लेकर पूछ रहा था कि आपका घर कहाँ है ?  मेरी बच्ची आपके स्कूल में पढ़ती है उसने बताया कि यह आपको ढूँढ़ रहा है।’ दूर खड़ी बच्ची और उसके पिता को धन्यवाद दे कर विदा किया और पलटकर देखा तो महाशय अन्दर बैठे मेरे बेटे को बता रहे थे कि कैसे वो मोहल्ले के बच्चों से पूछताछ करते हुए यहाँ तक पहुँचे।सर्दियों के दिन थे अँधेरा घिर आया था मैंने स्नेह से सिर सहलाते हुए उससे पूछा- ’करण अकेला क्यों चला आया? देख अँधेरा हो गया है।’ और हमेशा की तरह मेरे पर प्रश्न दागते हुए उसने मुझसे ही सवाल पूछा -’आपने वो घर क्यों छोड़ दिया ? 

मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ आपको ? दोपहर से अब तक खाना भी नही खाया।’ 

      उसकी बातों से मैं समझ गई कि वह दोपहर से भटक रहा है और अब शाम हो गई है उसके घरवाले कितने परेशान होंगे यही सोचते हुए मैने उसको खाना देकर उसके घर फोन मिलाया उसके घरवाले भी कमाल के थे उन्हे बच्चे की सुध ही नही थी उन्हें लगा पड़ोस में खेल रहा होगा।मेरा बेटा रोमांचित था उसकी बहादुरी पर कि वो बड़ा होकर कमाल करेगा इतना सा है फिर भी उसने हमें ढूँढ़ लिया और एक मैं हूँ जो उसे कहीं आने जाने नही देती ।

              थोड़ी देर बाद उसके मम्मी-पापा आकर ले गए उसे और उस दिन के बाद वह आज मिला उसी गाँव के मन्दिर में । घर के दरवाजे का ताला खोलते हुए मैं सोच रही थी कि उस दिन पक्की पिटाई हुई होगी तभी तो आण्टी और उनका घर याद नही रहा मगर वह भूला कहाँ था ? उसे तो अब भी वही घर और उसमें रहने वाले लोग याद थे।

         सुबह होते-होते करण और उससे जुड़ी बातें मेरे दिमाग

 से निकल गई और मैं रोजमर्रा की दिनचर्या में व्यस्त हो गई। कुछ समय बाद मेरा स्थानांतरण दूसरे  शहर में हो गया। शुरुआती दिन तो कठिन रहे शान्त से कस्बे का शान्तिपूर्ण जीवन और शहरी जीवन की भागमभाग में तारतम्य बैठाते थोड़ा वक्त लगा पर जल्दी ही जीवनरुपी गाड़ी पटरी पर आ गई। एक दिन फोन की घण्टी बजने पर और मेरे ‘हैल्लो’ बोलते ही चिरपरिचित आवाज कानों में पड़ी – ‘नमस्ते आण्टी ! मैं करण ! देखो मैंने आपको फिर से ढूँढ लिया।’

मैं हैरान थी उसकी आवाज सुनकर, पूछने पर उसने बताया स्कूल की मेरी एक परिचित से मेरे फोन नम्बर लिए थे।

                   कुशल-क्षेम पूछने के बाद हँसते हुए मैंने उससे 

पूछा - आज हमेशा की तरह नही पूछोगे - ‘आपने वह घर क्यों छोड़ दिया ?’ अपनी आदत के विपरीत बड़ी गंभीरता से उसने पहली बार ना में उत्तर दिया - ‘नही .., मगर अब जब भी उस घर को देखता हूँ तो अपने बचपन के साथ आपको ज़रूर देखता हूँ वहाँ ।आप मम्मी से बात करो वे बात करना चाहती हैं आप से।’

          उसकी मम्मी से बातें हुईं ,बातें कम एक माँ की दूसरी

 माँ से शिकायतें ज्यादा थी। पढ़ाई-लिखाई नही करता ,पता नही कहाँ ध्यान रहता है ,कुछ-कुछ ठोकता-पीटता रहता है, कुछ-कुछ अनाप-शनाप बनाता रहता है लगता है पिछले जन्म मे कोई हाथ से काम करने वाला कारीगर था। आप कहो ना ..,पढ़ाई में ध्यान लगाए। आपकी सुनता है पड़ोस में शादी में गए थे वहाँ आपकी परिचित आई थी उन्हे देख मेरे पीछे पड़ गया  - ‘माँ आण्टी के फोन नम्बर पूछो ना इनसे।’ 

जब मैंने उसको माँ की बातें बताई तो खिलखिला कर हँस

दिया - ‘पास हो जाता हूँ अच्छे नम्बरों से ,छोटे की तरह रैंक नही

ला पाता इसीलिए शिकायतें हो रही हैं।’

अजीब सा रिश्ता था उसके और मेरे बीच ,मेरा बेटा उस से दो-तीन साल बड़ा था वह हमेशा उसी के साथ खेलता ,ढेर सारे प्रश्न  और जिज्ञासाएँ होती उसके पास, उन सब का समाधान मुझ से ही चाहिए होता उसको। कई बार झल्ला उठती मैं और कह देती थोड़े सी मगजमारी अपनी माँ और दादी के लिए भी बचा कर रख तो मासूमियत भरा जवाब होता - आप नही बता सकतीं तो वो कैसे बताएँगी। मेरा बेटा हँसकर कहता  - मिल गया जवाब,उसको भी पता है तुम गुस्सा नही कर सकती फिर क्यों कोशिश करती हो झल्लाने की। रात को माँ या दादी के डाँटने और बुलाने पर घर जाता सुबह होने की प्रतीक्षा रहती थी उसे, कि कब वह मेरे घर आए। वह मेरे बेटे के साथ ‘स्टेच्यू’ खेलते-खेलते कब मेरे साथ भी खेलने लग गया पता ही नही चला। कुल दो वर्ष ही तो रही थी मैं उसके पड़ोस में लेकिन मुझे और मेरे बेटे को अक्सर एक लम्बे अन्तराल के बाद अपनी उपस्थिति से हतप्रभ कर दिया करता है।

             एक अजनबी शहर में नितान्त अकेले मैं और मेरा बेटा कभी मेरे बचपन तो कभी मेरे बेटे के बचपन की यादों में डूब जाया करते हैं और हमारी बातों की समाप्ति प्राय इसी वाक्य पर होती है कि इस दुनिया में हम दो पागल हैं जो न जाने किस-किस को याद करते रहते हैं। बहुत से व्यक्ति जिनको हम याद करते हैं उनको हमारे नाम भी याद नही होंगे और एक हम है जो उनकी बातें किये जा रहे है जरुर हिचकियाँ आ रही होंगी उन्हें और वे उनको रोकने के लिए अपने प्रियजनों के नाम भी लेते होंगे बस हमारा ही नही लेते होंगे और इतना कह कर हँसते हुए अपने-अपने काम में लग जाते हैं। हम दोनों ही इस तथ्य को भली-भाँति जानते हैं कि हिचकी आना शरीर के अन्दरुनी परिवर्तनों का परिणाम है मगर लोक लुभावन किवदन्ती कि कोई याद करता है तो हिचकी आती है को महत्व देते हैं।

पता नही क्यों आज बैठे-बैठे यूं ही करण की याद आ गई और साथ ही मन में एक विचार भी कि कितनी बार ऐसा होता है कि मुझे हिचकी आती है मैं बारी-बारी से सब रिश्तेदारों और परिचितों के नाम लेती हूँ हिचकी रोकने के लिए। कई बार किसी के नाम पर हिचकी रुक जाए तो खुश हो जाती हूँ कि अमुक पहचान वाले ने याद किया लेकिन कई बार नही रुकती, रुके भी तो कैसे याद तो वो कर रहा होता है जो हम दोनों जैसा है तभी तो जब भी मिलता है  तो याद दिलाता है कि मैं आप लोगों को याद करता हूँ। बचपन से लेकर अपनी युवावस्था तक एक ‘याद’ नाम का ‘नेह का धागा’ ही तो है जिसको उसने कस कर हम माँ-बेटे के साथ जोड़ रखा है और एक मैं हूँ जो सब का नाम लेती हूँ बस उसी का भूल जाती हूँ।

             

                                  ***


Monday, August 29, 2022

“ज्ञान”

                        राजस्थान राज्य में शेखावाटी इलाके के झुन्झुनूं जिले से 70 कि॰मी॰ दूर आड़ावल पर्वत की घाटी में बसा एक सुरम्य तीर्थ स्थल लोहार्गल है । जिसका शाब्दिक अर्थ “वह स्थान जहाँ लोहा गल जाए” है ।

          भाद्रपद मास में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से अमावस्या तक प्रत्येक वर्ष लोहार्गल के पहाड़ों में हज़ारों नर-नारी 24 कोस की पैदल परिक्रमा का आरम्भ सूर्य कुंड में स्नान कर आरम्भ करते हैं । पहाड़ी क्षेत्र और हरियाली से भरपूर औषधीय गुणों से युक्त पेड़-पौधों से आती शुद्ध-ताजा हवा और  ट्रैकिंग का यहाँ अपना ही आनंद है।

                       भूमि भी प्रकृति के सानिध्य के मोह में अपने रिश्तेदारों के साथ यहाँ चली आई है यह सोच कर कि वह कुछ समय रूक कर शाम तक घर लौट आएगी ।यहाँ के मंदिरों के शिलालेखों को पढ़ते हुए भूमि की तन्द्रा तब टूटी जब उसके 

साथ आया समूह “भूमि .., भूमि ” आवाज़ देकर उसे बुला रहा 

था ।

           “चल स्नान करने ।” किसी ने यह कहते हुए उसका हाथ खींचते उसे चलने को कहा तो उसने वह स्थान देखा 

जहाँ झीलनुमा सरोवर में  असंख्य स्त्री-पुरूष डुबकियाँ लगा रहे थे बहुत से लोग दर्शक बन आनंद विभोर थे और सुरक्षा के लिए

तैनात महिला - पुरूष पुलिसकर्मी मुस्तैदी से अपने ड्यूटी पर 

तैनात थे ।

 -  “मुझे नहीं खानी कोई डुबकी-वुबकी ..,भूमि ने दृढ़ता से जवाब दिया ।”

-  “यहाँ आकर भला बिना स्नान के कोई जाता है सब पाप गल जाते हैं तीर्थ स्नान से ।पाण्डवों की बेड़ियाँ भी गल गई थी।पहाड़ों  में गोमुख से निकलता पानी बड़ा निर्मल और पवित्र है ।”

 चौबीस कोसी परिक्रमा के लिए सिर पर थैला धरे एक महिला श्रद्धालु ने भूमि को समझाया । 

“ मगर हम इस निर्मल और पावन जल को पी कर पावन क्यों 

नहीं होते । पहाड़ से निकलता निर्मल और शुद्ध जल पीने के लिए

बहुत अच्छा है ।” - उसने अपनी बात रखने की कोशिश  की ।

                     आपसी विमर्श के दौरान किसी सुरक्षाकर्मी ने 

यह सोच कर की भीड़ में किसी का कुछ खो तो नहीं गया 

इसलिए हस्तक्षेप करते हुए पूछा - “क्या हो रहा है यहाँ…,

कोई परेशानी ?”

                        “ कुछ नहीं जी .., ज्ञान बँट रहा है ।” -

खड़े हुए समूह में से बेजार भाव से किसी की अभिव्यक्ति 

अभिव्यक्त हुई ।

                   

                                ***






Monday, August 15, 2022

“स्वतन्त्रता दिवस”


15 अगस्त …, राष्ट्रीय उत्सव .. राष्ट्रीय ध्वज..,  राष्ट्रगान.., देशभक्ति गीत.., स्कूलों के दिन । कभी कार्यक्रमों में सहभागी

बन तो कभी सहयोगी बन भाग लेने के दिनों की स्मृतियाँ .., 

साँसों बीच बसी है ।

          इस अविस्मरणीय दिन को माँ भारती के अमर शहीद 

नर - नारी जिनकी क़ुर्बानियों और अथक प्रयासों से हमें स्वतंत्रता मिली उनको नमन करते हुए हम सम्पूर्ण देशवासी 15 अगस्त

के दिन राष्ट्र के उत्थान और स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाए रखने के संकल्प के साथ स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं ।आइए हम सब अपने राष्ट्र  के गौरवपूर्ण इतिहास की स्मृतियों को संजोये गुनगुनाएँ  मुस्कुरायें । Happy Independence Day.

  सभी विज्ञ साथियों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ एवं बधाई ।         


                          जय हिन्द ! जय भारत !

Tuesday, July 19, 2022

“सावन”


सावन के आते ही रिमझिम बारिश के साथ तीज-सिंधारा पर्व , जगह जगह पेड़ों पर पड़े झूले  और माँ का चेहरा स्मृतियों में साकार हो उठता 

है उस समय लहरियों के कपड़ों के साथ मेहन्दी की महक एक अलग सा समां बाँध देती थी सावन माह में । तब मैं इतनी बड़ी नहीं थी या फिर समझ नहीं थी कि माँ से कभी फ़ुरसत में यह सवाल करूँ  कि - “ आप कितना प्यार करती हो मुझे ।”

मेरा यह प्रश्न पूछना और माँ से उत्तर पाना शायद समय की लकीरों में नहीं था मगर उन्हीं लकीरों में वो पल ज़रूर निहित  थे जिनमें रिमझिम बारिश के साथ माँ की वात्सल्य युक्त स्मृतियाँ दिल की ज़मीन को हर सावन में भिगोये रखतीं हैं ।

            माँ की ममता की गागर मेरे लिए पहली बार मैंने तब छलकती अनुभव की जब बड़े प्यार से उन्होंने झूले पर बैठाते हुए मुझे सतर्क किया “डोर कस कर पकड़ना ।” झूले पर बैठते ही दूसरी लड़की ने जैसे ही 

पेंग बढ़ाने को पैरों से जोर लगाया मेरा कलेजा डर के मारे बाहर और 

मेरी चीख से पहले माँ जोर से चिल्लाईं -“झूला रोको ।” 

झूले से मुझे उतार कर गले लगा आँसू पोंछते हुए हैरानी से माँ ने पूछा - “तुझे डर लगता है झूले से..!”  मेरे बालमन को अपनी हमउम्र लड़कियों के बीच शर्मिंदगी भी महसूस हो रही थी अपने डरपोक होने पर …, सो सफ़ाई देते हुए मैंने कहा - “हाथ से डोर छूट रही थी ।” घर आने पर 

भाई ने हँसी उड़ाई - “डरपोक कहीं की ।”

    अगले दिन स्कूल से आई तो आँगन में बल्लियों के आधार पर स्कूलों के मैदानों जैसा झूला मानो इन्तज़ार कर रहा था मेरा । मैं विस्फारित नज़रों से झूले को निहार रही थी कि पीछे से माँ की खनकती आवाज़ सुनाई दी -“धूप ढलने दे…,धीरे-धीरे झूलना ।जब झूले पर बैठेगी तो 

डोर पर हाथों की पकड़ अपने आप मज़बूत होती चली जाएगी ।” मानो वह अपनी लाडली को किसी भी क्षेत्र में कमजोर नहीं देखना चाहती थी ।

                 माँ नहीं रहीं और न ही झूले वाला आँगन रहा , बस यादें हैं  जो आज भी सावन की रिमझिम बरसती बूँदों के रूप में

टिपर..,टिपर..,टापुर..,टापुर.., करती मनमस्तिष्क के कपाटों पर दस्तक देने लगती हैं ।

                                     ***

Friday, July 1, 2022

वैश्विक धरोहर



दुनिया में बहुत से ऐसे पुल हैं जिनको बनाने वाले इंजीनियरों की तारीफ़ सभी करते हैं ।उनकी खूबसूरती और मज़बूती की 

चर्चाएँ भी अक्सर हुआ करती है । गोल्डन गेट ब्रिज, सनफ्रांसिस्को, यूनाइटेड स्टेट्स , टॉवर ब्रिज, लंदन, इंग्लैंड और सिडनी 

हार्बर ब्रिज, सिडनी, ऑस्ट्रेलिया ऐसे ही विश्व प्रसिद्ध पुलों के उदाहरण हैं ।

            भारत में भी एक ऐसा ब्रिज है जो अपने आप में अद्भुत है इस पुल की खास बात ये है कि यह पेड़ की जड़ों बना हुआ है  । 

यह पुल पेड़ों की जिंदा जड़ों से धागे की तरह बुनकर बनाया 

गया है । मेघालय की खासी और जयंतिया जनजाति के लोगों 

को यह कला सदियों से अपने पूर्वजों द्वारा विरासत में मिलती 

चली आ रही  है ।चेरापूंजी में इन्हीं लोगों द्वारा बनाये गये 

डबल डेकर पुल को यूनेस्को द्वारा वर्ल्ड हेरिटेज साइट भी 

घोषित किया हुआ है ।

                   कहते हैं ये पुल रबर के पेड़ की जड़ों से बनते हैं 

एक पुल को सही आकार देने में दस से पन्द्रह साल तक 

लग जाते हैं  ।ये पुल घने जंगलों में नदियों के ऊपर आवाजाही 

के लिए बनाए जाते हैं ।खासी-जयंतिया जनजाति के वंशज 

अपनी प्राचीन  कला कौशल को संरक्षित रखने के साथ-साथ सीमित संसाधनों में आत्मनिर्भर जीवन यापन का अनूठा 

आदर्श प्रस्तुत करते हैं ।


विटप सेतु ~

वैश्विक धरोहर

मेघालय में ।

Friday, June 17, 2022

“बढ़ता तापमान बदलता जीवन”

जलवायु परिवर्तन मौसमी दशाओं में  आए उस परिवर्तन को कहते हैं  जिसका प्रभाव सम्पूर्ण प्रकृति पर दृष्टि गोचर होता

 है । सामान्यतः इन परिवर्तनों का अध्ययन पृथ्वी के इतिहास को बाँट कर किया जाता है। जलवायु की दशाओं में यह  परिवर्तन प्राकृतिक होने से अधिक मानव के क्रियाकलापों

 का परिणाम अधिक लगता है ।

                    बढ़ते तापमान के लिए संयुक्त राष्ट्र ने भी चेतावनी दी है कि - “ग्लोबल वार्मिंग तेज हो रही है और इसके लिए साफ़ तौर पर मानव जाति ही ज़िम्मेदार है. इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पृथ्वी की औसत सतह का तापमान, साल 2030 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा।”

             मौजूदा हालात को देखते हुए इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस शताब्दी के अंत तक समुद्रों और महासागरों का जलस्तर बढ़ सकता है । बढ़ते तापमान

 के कारण हिमग्ले़शियरों का पिघलना ,धरती पर बाढ़ों की संख्या में बढ़ोतरी के साथ तूफ़ानों  की संख्या में वृद्धि  होना और मौसम मे भारी बदलाव जैसे :-  सर्दियों में अधिक सर्दी,गर्मी में अत्यधिक गर्मी और वर्षा का अधिक या अल्प मात्रा में होना निश्चित  है ।

              वैज्ञानिकी तरक़्क़ी और औद्योगिक क्रांति की सफलताओं के बीच प्रकृति की अनदेखी करना मानव के स्वयं के अस्तित्व के साथ साथ पृथ्वी के अस्तित्व के लिए भी संकट का विषय है ।बढ़ते शहरीकरण के प्रभाव में जंगलों की अंधाधुंध कटाई और औद्योगिक कल कारख़ानों से उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड व अन्य विषैली गैसों के कारण  ग्रीनहाउस इफ़ेक्ट से असामान्य  रूप से तापमान वृद्धि की स्थिति जलवायु की विषमता का प्रमुख  घटक बनती है वही अपनी  सुख सुविधाओं के लिए प्राकृतिक घाटों व पहाड़ी इलाक़ों का क्षरण, बाँधों का निर्माण मानव जाति के लिए खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है जिसके दूरगामी परिणाम निःसंदेह भयावह है । 

         वर्तमान काल में अनियमित वर्षा के कारण हर वर्ष बाढ़ों की त्रासदी, चक्रवाती तूफ़ानों के कारण अपार जन-धन हानि, थार प्रदेश का विस्तार , पेयजल की मात्रा में भारी कमी और कठोर जल की बढ़ती समस्या के बाद भी पर्यावरण संतुलन की उपेक्षा मानव के लिए चिन्ताजनक है । बुद्धिजीवी मानव प्रजाति को अपनी आगामी पीढ़ियों  के चहुँमुखी उत्थान और उज्जवल भविष्य के लिए प्रकृति के संवर्द्धन हेतु इस तरह 

के प्रयास करने होंगे जिनके सफल क्रियान्वयन पर ब्रह्माण्ड के

दुर्लभ ग्रह पृथ्वी पर जीव जगत का जीवन सुरक्षित रह सके ।


                                  ***

स्रोत :-

[ भौगोलिक जानकारी पर आधारित ]

 प्रकृति दर्शन- जून अंक में प्रकाशित 


Saturday, June 4, 2022

“सर्वे”


पिछले तीन घण्टे से स्नेहा अपने दो सहयोगियों के साथ 

तपती धूप में फाइल थामे कभी इस दुकान तो कभी उस दुकान,छोटे-मंझोले रेस्टोरेन्टस् में चक्कर लगा रही थी बाल 

श्रमिक सर्वे हेतु बच्चों के नाम सूचीबद्ध करने के लिए । हमेशा 

की तरह आज किसी भी दुकान पर चाय पकड़ाते और कप 

धोते उसे एक भी बच्चा नज़र नहीं आया । धूप में उसका सिर 

तप रह था और आँखों में रोशनी के झपाके लग रहे थे ।गर्मी से सड़कों की स्थिति कर्फ़्यू लगने जैसी थी । प्यास बुझाने के लिए उसने कंधे पर टंगे बैग से पानी की बोतल निकाली तो खाली 

बोतल मानो मुँह चिढ़ा रही थी ।

                  तभी एक सहयोगी ने कहा - “कल का दिन भी है हमारे पास, बाकी का एरिया कल कवर कर लेंगे । आप थक 

गई हैं अभी आपका घर जाना ठीक रहेगा।” उसको भी यही ठीक लगा । आपसी सहमति से तीनों ने कल दोपहर का समय न 

चुनकर सुबह जल्दी आना तय किया । दोनों सहयोगियों ने 

अपनी-अपनी राह ली और वह जैसे ही मुड़ी सामने से रिक्शा 

आता देख ज़ोर से चिल्लाई-“रिक्शा” ! 

                 रिक्शा चालक ने सिर कैप से और मुँह तौलिए से 

ढका था ।रिक्शे के चलने से लू के थपेड़े भी स्नेहा को सुकून 

भरे लगे थोड़ा आराम मिलने पर उसे कदकाठी से रिक्शा चालक किशोर लगा तो उसने पूछा - “कहाँ से हो भाई ! नाम क्या है 

तुम्हारा ?”

        चालक ने पूर्ववत अपना काम करते हुए कहा - “आप

क्या करेंगी जानकर …, मेरी उम्र अट्ठारह साल है । आज 

गली-गली कुछ लोग फ़ाइलें लिए घूम रहे हैं । कहते हैं - 

“बालश्रम अपराध है ।” मज़दूरी नहीं करेंगे तो खायेंगे क्या ? 

हम ग़रीबों के यहाँ तो हर बंदा काम करता है तो ही बसर होती

 है रिक्शे का किराया भी रोज़ाना इसके मालिक को देना होता

 है ।”

            निरुत्तर सी  स्नेहा रिक्शा रूकवा किशोर के हाथ में 

बीस रूपये थमा कर पैदल ही घर की ओर चल पड़ी । चलते 

वक़्त वह श्रमिकों की व्यथा के साथ उस फाइल के बारे में भी 

सोच रही थी जो आते समय वह अपने सहयोगी को दे आई थी।


                                    ***


Saturday, May 7, 2022

“किताबें” [हाइबन]



दिसम्बर की कड़ाके ठंड और उस पर ओस भरी हवाओं के साथ रुकती थमती बारिश…पिछले एक हफ़्ते  से बिछोह की कल्पना मात्र से ही आसमां के साथ मानो बादल भी ग़मगीन हैं ।       

                              जीवन का एक अध्याय पूरा हुआ । दूसरे चरण के आरम्भ के लिए बहुत कुछ छोड़ना है । जिसकी कल्पना 

हर पल छाया की तरह मेरे साथ रही । गृहस्थी के गोरखधंधे भी अजीब हैं  पिछले पाँच सालों से कम से कम सामान रखने के 

फेर में न जाने कितनी ही चीजों को  देख कर अनदेखा करती 

आई  हूँ कि जब इस शहर में रहना ही नहीं तो सामान भी बढ़ाना क्यों ? मगर सामान है कि सिमटने का नाम ही नहीं लेता । 

और अब सब से बड़ी समस्या जो मेरी प्रिय भी है मुँह खोले खड़ी 

है  मेरे सामने वह है मेरी किताबें …, कितनी ही किताबें  संगी 

साथियों को देने के बाद भी मेरे आगे रखी हैं जिनको साथ ले 

जाना या छोड़ कर जाना दोनों ही काम दुष्कर है मेरे लिए ।जान-पहचान  और संगी- साथियों से विदा के समय मेरी प्रतिक्रिया 

कल क्या होगी कल पर छोड़ती हूँ । मगर आज मेरे हाथों बक्से 

में बन्द होती मेरे एकान्तिक क्षणों की  संगिनी अपनी समग्रता के साथ उपालम्भ भाव से जैसे मुझ से सवाल करती  हैं -

बोली अबोली  ~

काहे चली बिदेस

निष्ठुर संगी ।


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