"दीदी..एक काम था तुमसे । माँ को तो नहीं बताओगी ?"वह साफ किये बर्तन रसोई की स्लैब पर रखते हुए अटकते - अटकते बोली । तू बोलेगी भी अब …मैंने दिलासा देते हुए कहा ।
"एक चिट्ठी लिखानी है उनको...दोपहर में आऊँगी ।
माँ के सोने पर… लिफाफा नहीं है मेरे पास । मैंने
कहा - कोई नही मैं दे दूंगी...तू आ जाना
दोपहर में लाइट के अभाव में हम छत की सीढ़ियों पर बैठी चिट्ठी लिखने और लिखाने ।
"अब की बार तुम्हारी माँ ने बहुत काम कराया..रोटी खाने को गिन कर ही देती थी । कहती थी तुम पैसे नहीं भेजते घर ।"
मैं उसका दुख उतार रही थी अन्तर्देशीय लिफाफे
में और वह साड़ी के पल्लू को अंगुली से लपेट-खोल रही थी उधेडबुन में उलझी । अचानक जैसे कुछ भूला याद आया हो कुछ उदास और
दुखी लहजे में बोली - "तुम पैसे भेजोगे तभी तो तुम्हारी माँ बिना गिने रोटी खाने को देगी ।
यहाँ माँ कहती है जँवाई जी कब आयेंगे.. वहाँ तुम्हारी माँ मुझसे सवाल करती है तुम पैसे कब भेजोगे। "
मैंने उसकी बात सुन लगभग उस पर गुस्सा करते हुए कहा - तुमने घर पर नहीं बताया ?"
सबको पता है दीदी .. यही गृहस्थी है भाभी -भाई को बोझ लग..., हमारा संवाद और बढ़ता उससे
पूर्व उसकी भाभी ने आ कर लगभग डॉटते हुए
कहा - "जीजी ! यहाँ बैठी लव-लेटर लिखा रही
हो । वहाँ मांजी चिल्ला रहीं हैं खेत से लकड़ियाँ
नहीं आई तो शाम को चूल्हा कैसे जलेगा ।"
आधा-अधूरा ख़त मेरे हाथ से छीन कर साड़ी के पल्लू में छिपाती हुई "ओ माँ ! मैं तो भूल ही गई
थी ।" कहती हुई वह घर की ओर भागी । भागती ननद को खा जाने वाली नजरों से घूरती और मेरी तरफ बनावटी मुस्कुराहट फेंकती भाभी ने जुमला
उछाला - जीजी का मन नहीं टिकता अब…
काम कहीं ,ध्यान कहीं ।
निस्तब्ध मुद्रा में बैठी मैं उसकी खातिर मन में उठी व्यथा और उसके कथित लव - लेटर के बारे में
सोच रही थी ।
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