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Saturday, June 27, 2020

"लेटर" 【लघुकथा】

"दीदी..एक काम था तुमसे । माँ को तो नहीं बताओगी ?"वह साफ किये बर्तन रसोई की स्लैब पर रखते हुए अटकते - अटकते बोली । तू बोलेगी भी अब …मैंने दिलासा देते हुए कहा ।
 "एक चिट्ठी लिखानी है उनको...दोपहर में आऊँगी ।
  माँ के सोने पर… लिफाफा नहीं है मेरे पास । मैंने
कहा - कोई नही मैं दे दूंगी...तू आ जाना 
 दोपहर में लाइट के अभाव में हम छत की सीढ़ियों पर बैठी चिट्ठी लिखने और लिखाने ।
 "अब की बार तुम्हारी माँ ने बहुत काम कराया..रोटी खाने को गिन कर ही देती थी । कहती थी तुम      पैसे नहीं भेजते घर ।" 
  मैं उसका दुख उतार रही थी अन्तर्देशीय लिफाफे
 में  और वह साड़ी के पल्लू को अंगुली से  लपेट-खोल रही थी उधेडबुन में उलझी । अचानक   जैसे कुछ भूला याद आया हो कुछ उदास और 
दुखी लहजे में बोली - "तुम पैसे भेजोगे तभी तो तुम्हारी माँ बिना गिने रोटी खाने को देगी । 
यहाँ माँ कहती  है जँवाई जी कब आयेंगे.. वहाँ तुम्हारी माँ मुझसे सवाल करती है तुम पैसे कब भेजोगे। "
मैंने उसकी बात सुन लगभग उस पर गुस्सा करते हुए कहा -  तुमने घर पर नहीं बताया ?"
 सबको पता है दीदी .. यही गृहस्थी है भाभी -भाई   को बोझ लग..., हमारा संवाद और बढ़ता उससे
 पूर्व उसकी भाभी ने आ कर लगभग डॉटते हुए
 कहा - "जीजी ! यहाँ बैठी लव-लेटर लिखा रही 
हो । वहाँ मांजी चिल्ला रहीं हैं खेत से लकड़ियाँ
 नहीं आई तो शाम को चूल्हा कैसे जलेगा ।"
  आधा-अधूरा ख़त मेरे हाथ से छीन कर साड़ी के  पल्लू में छिपाती हुई  "ओ माँ ! मैं तो भूल ही गई
 थी ।" कहती हुई वह घर की ओर भागी । भागती ननद को खा जाने वाली नजरों से घूरती और मेरी तरफ बनावटी मुस्कुराहट फेंकती भाभी ने जुमला 
उछाला - जीजी का मन नहीं टिकता अब…
   काम कहीं ,ध्यान कहीं ।  
 निस्तब्ध मुद्रा में बैठी मैं उसकी खातिर मन में उठी   व्यथा और उसके कथित लव - लेटर के बारे में 
सोच रही थी ।
                           
🍁🍁🍁

Tuesday, June 23, 2020

"भोर"

पंडित जी सिर झुकाए मंडप के नीचे बैठे कहीं 
गहरी सोच में डूबे एक तिनके से कुछ कुरेदते हुए  सोच रहे
थे कि शादी की यह आखिरी रस्म पूरी हो तो वह भी
घर की राह ले  । घर की औरतें और आदमी बेटी की
विदाई से पूर्व इधर -उधर व्यस्त होने का दिखावा कर
रहे थे वही बाहर के लोगों में अलग कानाफूसी चल
रही थी । दूल्हा और उसका परिवार कहीं दिखाई नहीं
दे रहा था । बाराती खा -पीकर या तो विदा हो चुके थे
या डेरे में तान कर सो रहे थे ।
अचानक मंडप के नीचे सरगर्मी बढ़ती दिखी । 
दूल्हे ने निर्धारित आसन पर आ कर बैठते हुए 
कहा - "रस्में पूरी कीजिए पंडित जी ! '
 सहमे से स्वर में दुल्हन के पिता ने 
कहा - "समधी जी और  बाकी सब …,"
दूल्हे ने बात को रोकते हुए सवाल किया - "फेरे हो गए..
आपकी बेटी की जिम्मेदारी किसकी …?" और पंडित की तरफ देखते हुए कहा - "बहुत देर हो गई.. जल्दी कीजिए । आगे भी जाना है ..भोर होने वाली है।"
पंडित जी के मंत्रोच्चार के साथ ही मानो
      पूर्व की लालिमा ने घर के आंगन में सुनहली भोर के
आगमन की दस्तक दे दी थी ।

★★★