【चित्र:-गूगल से साभार】
बूँदों की छम-छम…,उमड़ती-घुमड़ती काली घटाएँ..,भला किसे अच्छी नहीं लगती । सावन-भादौ में बारिश की झड़ी, चारों तरफ हरियाली प्रकृति का भरपूर आनन्द रेगिस्तान में नखलिस्तान जैसे छोटे से शहर पिलानी में पल-बढ़ कर सदा ही लिया । किशोरावस्था के लगभग चार वर्ष असम में गुजरे जहाँ प्रकृति ने खुले हाथों से अपना प्यार लुटाया है । घने वृक्षों, नदियों और वर्षा के बिना पूर्वोत्तर भारत की कल्पना ही नहीं की जा सकती।
प्रकृति का रूखापन पहली बार तब देखने को मिला जब मुझे बी.एड. करने राजस्थान के चुरु जिले में स्थित सरदारशहर जाना पड़ा। जैसे -जैसे पिलानी पीछे छूटती गई वैसे-वैसे हरियाली से नाता भी टूटता गया । विरल झाड़ियां , छोटे-छोटे खेजड़ी के पेड़ और दूर तक नजर आती सोने सी भूरी मिट्टी के टीले और उन्हीं के बीच बहुत कम घरों की संख्या । सही मायनों में राजस्थान से अब परिचय हो रहा था
मेरा । लगभग साढ़े पाँच घंटे के सफर के बाद रेत के धोरों और छिटपुट वनस्पति के बीच एक बहुत बड़े होर्डिंगनुमा गेट पर- "गाँधी विद्या मंदिर शिक्षण प्रशिक्षण संस्थान" सरदार शहर आपका स्वागत करता है।" के साथ ही आने वाले एक साल में बहुत कुछ सीखना बाकी था । सरदार शहर अपने समयानुसार सुन्दर और सुव्यवस्थित लगा लेकिन पहली बार बरसात और वृक्षों के अभाव को एक शिद्दत के साथ महसूस भी किया ।
बारिश के अभाव में पानी की किल्लत…,सर्दियों में शून्य तक तापमान देखने के बाद सूखी गर्मियों की गर्म 'लू'और धूल भरी आँधियाँ देखनी अभी बाकी थी । लेकिन धीरे-धीरे परिस्थितियों से सामंजस्य तो बैठाना ही था ।
मेरे लिए सब से बड़ी परेशानी पीने के पानी
की थी । हॉस्टल में मेरे जैसी चार-पाँच लड़कियों को छोड़ कर तमाम लड़कियाँ पीने के पानी को लेकर सहज थी वही हमारे लिए वह पानी बहुत खारा था । अत्यल्प बारिश के कारण रेतीले इलाकों में वर्षा के जल को संग्रहित करने की परम्परागत प्रणाली कुंड या टांके हैं जिनमें संग्रहित जल का मुख्य उपयोग वहाँ के निवासी पेयजल के लिए करते हैं। प्रदूषण और दुर्घटना को रोकने हेतु इस प्रकार के जल स्रोत ढक्कन सहित तालों से बंद होते हैं। इनका निर्माण संपूर्ण मरूभूमि में लगभग हर घर में किया जाता है, क्योंकि मरूस्थल का अधिकांश भू जल लवणीयता से ग्रस्त होने के कारण पेयरूप में काम में लेना असंभव है । अतः वर्षा के जल का संग्रहण यहाँ के निवासियों के लिए दैनिक जल आपूर्ति के लिए अनिवार्य है ।
कपड़े धोते समय नल अधिक देर खुला रहने
पर सफाईकर्मी के माथे की सलवटें और खीजभरा सुर सुन ही जाता था - "कौन सी जगह से हो ? पानी कितना बरसता है तुम्हारे गाँव में…, बहुत कुएँ-बावड़ी दिखते हैं ?"
टोकने पर तल्ख़ी जरूर होती थी मगर खाली बैठते तो वहाँ के बाशिंदों का विषम और कर्मठ जीवन सोचने को मजबूर करता कि धरती पर प्रकृति सब जगह एक समान क्यों नहीं हैं ? और फिर याद आता कि अरावली का वृष्टि छाया प्रदेश होने के कारण अरब सागर व बंगाल की खाड़ी का
मानसून थार प्रदेश में बहुत कम वर्षा करता है।
आजकल बैंगलोर में रहते हुए प्रायः रोज
बादलों को घिरते और बरसते देख रही हूँ । घनी हरियाली को सिमटते और आवासीय परिसरों में बदलते देख रही हूँ वर्ष भर सुबह-शाम की ठंडक को कम होते और स्वेटर,शॉल,जैकेट्स को आलमारियों में सिमटते देख रही हूँ ।
दिन प्रतिदिन हम अपनी चादर से अधिक पैर पसार कर शहरी विकास और भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए जंगलों और पर्वतीय क्षेत्रों का कटाव कर उन्हें समेटते जा रहे हैं। मैं थार प्रदेश जैसी विषमताओं के बारे में सोचने से बचना चाहती हूँ । कहते हैं अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता मगर महान पर्यावरणविद सुन्दरलाल बहुगुणा जैसी विभूतियों का समूह अपने देश के हर प्रान्त में देखना चाहती हूँ।
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जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (२३-0६-२०२१) को 'क़तार'(चर्चा अंक- ४१०४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
चर्चा मंच पर संस्मरण साझा करने के लिए हार्दिक आभार अनीता जी!
Deleteसुन्दर संस्मरण।
ReplyDeleteआपकी सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से सृजन सार्थक हुआ । असीम आभार सर !
Deleteईश्वर से प्रार्थना है,ऐसा ही हो,हमारे समाज से कई लोग सुंदरलाल बहुगुणा जैसे प्रेरणादाई कार्य करें, और पर्यावरण की हर समस्या का समाधान हो ।...एक बहुत जरूरी संदर्भ उठाने के लिए आपका आभार ।
ReplyDeleteलेखन को सार्थकता देती ऊर्जावान प्रतिक्रिया के हृदय से असीम आभार जिज्ञासा जी!
Deleteसुंदर संस्मरण,शुभकामनाएँ ।
ReplyDeleteआपकी सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से सृजन सार्थक हुआ । हार्दिक आभार मधुलिका जी।
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया लिए हार्दिक आभार सर !
Deleteअपनी मिट्टी से दूर जाने को विवश हो जाने वालों की अमूल्य निधि ये संस्मरण ही होते हैं मीना जी। आपने जो कहा, ठीक कहा। आज बातें बनाने वाले बहुत हैं लेकिन बहुगुणा जी की तरह सच्चे मन से इस पावन ध्येय के प्रति समर्पित होकर कुछ ठोस कार्य करने वाले गिनेचुने ही हैं।
ReplyDeleteलेखन को सार्थकता देती ऊर्जावान प्रतिक्रिया के हृदय से असीम आभार जितेन्द्र जी ।
Deleteसुन्दर संस्मरण
ReplyDeleteहार्दिक आभार मनोज जी ।
Deleteईश्वर से प्रार्थना है,हर घर मे सुंदरलाल बहुगुणा जैसे व्यक्तित्व का जन्म हो तभी ये धरा फिर से हरी भरी हो सकती है।
ReplyDeleteअपने संस्मरण के माध्यम से बहुत ही शिक्षाप्रद बात कह गई आप ,सादर नमन आपको मीना जी
लेखन सार्थक हुआ आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया से । आपकी प्रतिक्रिया नव सृजन के लिए उत्साह जगाती है । बहुत बहुत आभार कामिनी जी । सादर वन्दे ।
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (२७-0६-२०२१) को
'सुनो चाँदनी की धुन'(चर्चा अंक- ४१०८ ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
चर्चा मंच पर आपके द्वारा मेरे सृजन को मान देने के लिए असीम आभार नासवा जी ! सादर ।
ReplyDeleteपर्यावरण के प्रति आपकी चिन्ता वाज़िब है। अपनी इस चिन्ता पर बहुत सटीक एवं सुंदर शब्दचित्र प्रस्तुत किया है। साधुवाद आपको 🙏
ReplyDeleteशरद जी आपकी स्नेहिल उपस्थिति से सृजन सार्थक हुआ हृदयतल से आभार 🙏
Deleteसुन्दर , विचारणीय संस्मरण
ReplyDeleteआपकी सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से सृजन सार्थक हुआ । हृदय से असीम आभार उषा किरण जी!
Deleteबिल्कुल हृदय के पास के उद्गार हैं मीना जी जो आपने पहली बार देखा हमारा सारा बचपन ही वैसा ही बीता बस पानी हमारे इलाके में थोड़ा था पर मीठा ,हमारे पानी की मिठास की चर्चा गीतों में होती थी वहीं सिर्फ तीन किलोमीटर दूर बिकानेर का पानी बहुत नमकीन हुआ करता था, स्कूल कालेज सब बिकानेर और तब पानी की बोतल लेकर स्कूल जाने का कोई प्रचलन नहीं था ।
ReplyDeleteपानी को सहेज कर प्रयोग में लिया जाता था ।
आपका संस्मरण पुरानी यादें ताजा कर रहा है ।
बहुत सुंदर और सलीके से लिखा गया संस्मरण।
साधुवाद, सस्नेह।
आपको स्मृतियों के बीच ले जा पाई लिखना सफल हुआ कुसुम जी ! कभी बीकानेर गई तो जरूर याद करूंगी कि यहाँ से तीन किमी की दूरी पर कुसुम जी घर है :-) बेहद खुशी हुई आपने अपनी यादें साझा की । हृदय से असीम आभार । सस्नेह ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर संस्मरण।
ReplyDeleteआपकी सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से सृजन सार्थक हुआ । हृदय से असीम आभार अनुराधा जी।
Deleteसंस्मरण में आपने जो राजस्थान के चुरु जिले के बारे में जो आपने बताया सचमुच कितना मुश्किल होता होगा वहाँ का जीवन.. ।
ReplyDeleteसही कहा आपने कहते हैं अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता मगर महान पर्यावरणविद सुन्दरलाल बहुगुणा जैसी विभूतियों का समूह अपने देश के हर प्रान्त में देखना चाहती हूँ।
काश सभी पर्यावरण के प्रति थोड़ी सी भी सतर्कता दिखायें तो आने वाली भयावहता से बच सकते हैं..
बहुत ही सुन्दर सार्थक एवं विचारणीय संस्मरण।
सृजन सार्थक हुआ आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया से । आपकी हृदयस्पर्शी प्रतिक्रिया सदैव नव सृजन के लिए उत्साह भरती है मन में । तहेदिल से धन्यवाद सुधा जी ।
Deleteस्थायी विकास के आभाव में हमारे शहर पानी की किल्लत महसूस कर रहे हैं...हम रोज नये रेगिस्तान बना रहे हैं...जब किसी को कार धोते या सड़क को सींचते (धूल बैठाने को)...तो सहज आभास हो जाता है...कि पानी का मोल विज्ञापन से नहीं समझ आने वाला...सार्थक रचना...👏👏👏
ReplyDeleteब्लॉग पर आपकी प्रथम प्रतिक्रिया और उपस्थिति का हार्दिक स्वागत 🙏🙏 आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया से सृजन का मान बढ़ा । हार्दिक आभार ।
Deleteबहुत सुंदर संस्मरण मीना जी। मैं भी राजस्थान से हूँ। खेतड़ी, जिला झूँझनू से। पिताजी मुंबई आकर बस गए तो मैं अब तक केवल चार पाँच बार ही राजस्थान गई हूँ। मुंबई में बारिश अच्छी होती है, पानी भी ठीक ठाक ही मिलता है पर अपने या दूसरों के घर में पानी की टंकी का ओवरफ्लो होकर पानी बर्बाद होते देखने से आगबबूला हो जाती हूँ। शायद राजस्थान की माटी का असर है खून में।
ReplyDeleteकाश ! पानी बर्बाद करते अौर पेड़ काटते समय लोग एक बार मरूस्थल को याद कर लिया करें।
आपके खेतड़ी नगर एक बार जाने का सुअवसर मिला मीना जी । खेतड़ी कॉपर माइन्स देखने शैक्षणिक भ्रमण स्कूल की तरफ से। मुम्बई अक्सर आना होता है ।अब की बार मुम्बई आई तो आप जरूर याद आएंगी :-).राजस्थान गए एक अर्सा हुआ मगर माटी का असर बहुत खीचता है अपनी ओर
Deleteबेहद अच्छा लगा आप से यादें साझा कर के । हृदय की गहराइयों से असीम आभार ।