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लिखना-पढना अब उन साड़ियों की तरह हो गया जो न जाने कब से बंद पड़ी हैं पारदर्शी पन्नियों में.., विचार आते हैं और अन्तस् की गहराइयों को स्पर्श करते हुए न जाने कैसे शून्य में खो जाते हैं ।मेरे लिए सलीके से जीने के लिए खुद को चाहना और अभिव्यक्त करना बड़ा ज़रूरी होता है और वो कहीं खो सा गया है ।शब्द-शब्द बिखरे हैं चारों तरफ। चुन कर माला गूँथनी भी चाहूँ तो फिसल जाते हैं मोतियों की मानिन्द । उदासीनता का भाव आसमान की घटाओं सा घिर आया है पढ़ने -लिखने के मामले में ।
जानती हूँ अभिव्यक्ति के प्रकटीकरण में जड़ता कम से कम मेरे लिए व्यक्तित्व में कहीं न कहीं अपूर्णता है जिसे पूर्ण बनाने का दायित्व भी इन्सान का स्वयं का ही है । इस जड़ता के समापन के लिए खुद की खुद से जंग जारी है ।
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