स्कूल से आकर अपना बैग पटकते हुए दिशा ने शिकायती लहज़े में माँ से कहा - “तुम मुझ में और भाई में भेद-भाव रखती हो , उसको शाम तक भी घर से बाहर आने-जाने की छूट और मुझे नही?” माँ ने निर्लिप्त भाव से उसकी ओर देखते हुए पूछा-”आज यह सब कहाँ से भर लाई कूड़ा-कबाड़ दिमाग में।’
“ आज स्कूल में “समाज में लिंगभेद’ पर स्पीच थी , उसमें यह बात भी थी कि लड़कियों को लड़कों से कम समझा जाता है । लड़कों को ज्यादा सुविधाएँ मिलती हैं। और यह बात सच भी है मुझे बाहर कहाँ खेलने जाने देती हो तुम ?"
माँ ने बड़ी सहजता से कहा-”भाई के हर महिने बाल कटाती हूँ , तेरे बाल लम्बे हैं ,भरी दोपहरी या शाम को गलियाँ सुनसान होती हैं ऐसे समय-कुसमय में बुरी आत्माएँ घूमती हैं इसलिए लड़कियों को बाहर जाने से रोका जाता है । बाकी तू जानती है मैंने खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने में कभी भेद नही किया तुम भाई-बहनों में। "बाल-सुलभ जिद्द वही की वही रुक गई क्योंकि दिशा को भूतों-प्रेतों के नाम से ही डर लगता था यूं भी लाईट जाते ही वह उल्टा-सीधा जैसा भी याद था हनुमान-चालीसा बुदबुदाना शुरु कर देती थी।
दिशा सोच रही थी कि कुछ हद तक माँ की बात सही भी थी माँ को उसने अपने परीक्षा-परिणाम पर सदा खुश होते ही देखा। छोटे भाई और बहन को बड़े भइया की बजाय अच्छे से वह रखेगी इस बात का विश्वास था उन्हें। कई बार वाद-विवाद तो कई बार निबन्ध प्रतियोगिताओं में दहेज-प्रथा और लड़के-लड़की के मध्य असमानता जैसे विषय उठ जाया करते थे । नारी जाति के प्रति उपेक्षित व्यवहार की चर्चा कक्षा-कक्षों में भी होती थी और वह स्कूल से आते ही राम चरित मानस या गीता-पाठ करती माँ के पास अपना रोष व्यक्त करने पहुँच जाती मानो उसकी जिद्द है कि वह माँ को साबित कर दिखाएगी कि अन्तर है समाज में नारी और पुरुष वर्ग में ।
माँ शान्ति से बात सुनती और समझाती कि अवसर की समानता लड़कियों पर भी निर्भर है।वैदिक काल में मैत्रेयी,अपाला, गार्गी और विश्ववारा जैसी विदुषियाँ ऋषियों के समकक्ष थीं। माँ दुर्गा,लक्ष्मी और सरस्वती भी स्त्रियाँ ही हैं ना….,और तू ये गाती फिरती है -”खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।” यह भी तो लड़की ही थी ना ।"
कई बार वह उनके सामने हथियार डाल देती तो कई बार अपनी बुध्दि अनुसार नए तर्क खोजने लगती। मगर मकसद एक ही रहता कि माँ से अपनी बात मनवा कर छोड़ेगी ।
आज दिशा बड़ी हो गई है , माँ भी नही रही। घर - बाहर लड़कियों को देखती है , कुछ बड़ी हैं तो कुछ बड़ी हो रही हैं । नौकरियाँ कर रही हैं स्वावलंबी भी हैं मगर सवाल आज भी वही हैं। जिद्द भी वही है कि समाज में लिंगभेद असमानता है । लड़कियों के लिए विकास के अवसर कम है वगैरा-वगैरा ।
ऐसे समय में दिशा को माँ के समझाने का ढंग याद आ जाता है। असमय निर्जन स्थानों पर होने वाली महिलाओं के साथ दुर्घटनाएँ.. ,अक्सर माँ के द्वारा समय- कुसमय बाहर जाने से रोकने के तर्कों की याद दिलाती है।
आज की भागती-दौड़ती दुनियाँ में शायद वक्त ही नही है किसी के पास बालमन की जिज्ञासाओं को शान्त करने का।
“Don’t argue . चुप्प कर , ये कौन सा project है ?अपनी tuition-teacher.से पूछ लेना ।" जैसे जुमले व्यस्त भाव से सुनने को मिल जाते हैं। सवाल आज भी वही हैं बस जवाब देने के ढंग में अन्तर आ गया है शायद ।
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