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Thursday, April 8, 2021

एक-दो दिन...

दोपहर में घर के  कामों में उलझी थी वीणा कि मोबाइल

की रिंग ने ध्यान अपनी ओर खींच

 लिया । जैसे ही कॉल अटैंड की उधर से बिना सम्बोधन के

परिचित सी साधिकार आवाज

 आई--'कब आओगी.. दस बरस के साथ को 

बस ऐसे ही भुला दिया ? पाँच बरस हो गए तुम्हें देखे.. कल

सपने में दिखी थी तुम..कभी मिलने

   को मन नहीं करता ?'

उस लरजती आवाज से वीणा के मन का कोई 

कोना भीग सा गया और भरे गले से कहा --'आऊँगी

ना..मन मेरा भी करता है । आप सब तो व्यस्त रहते

हो..आऊँगी जल्दी ही.. वक्त निकाल कर ।' 

  'पक्का ना .., बहाना नहीं । मैं छुट्टी ले लूंगी एक-दो

दिन की ।' उधर से व्यस्त सी आवाज आई । वीणा ने

भावनाओं के बाँध पर हँसी का मजबूत पुल बाँधते हुए

पूछा - "सिर्फ एक-दो दिन ?" 

'फिर ऐसा करो कोई लम्बा वीकेंड देख लो' - उधर से व्यस्त

भाव से कहा गया और इधर-उधर की कुशल-क्षेम पूछने

के बाद जल्दी  मिलने के वादे की औपचारिकता के

साथ विदा हुई।  वीणा फोन टेबल पर रखते

 हुए सोच रही थी - "लगभग 1800 किमी की दूरी ,

दस बरस का नेह और पाँच बरस के बिछोह के हिस्से में

केवल एक- दो दिन...।"


***