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Monday, April 22, 2024

“आज कल”

गेटेड सोसायटी के अपार्टमेंटस् में रहना मुझे बहुत पसन्द रहा 

है हमेशा से ही सब कुछ बन्द -बन्द और सेफ । खुलेपन और ताज़गी के लिए खिड़कियाँ और बालकॉनियाँ काफ़ी हैं , कुछ कुछ यही नज़रिया रहा है मेरा घर के मामले में । बचपन के घर 

के आँगन की उपयोगिता भी मेरे लिए केवल आने-जाने भर के लिए हुआ करती थी । उम्र के साथ शायद सोच बदलने लगी 

है । आँगन वाले घर और घनी छाँव वाले पेड़ बहुत भाने लगे हैं आज कल ।

                          बहुत बार बहुत सारी जगहों पर अलहदा से विचार कौंधते हैं मन में ..,सोचती हूँ लिखूँगी । मगर टाइपिंग के लिए पेज़ खोलते - खोलते खुद पर खुद ही हावी हो जाती हूँ  

और ख़्याल हल्के-फुल्के बादल बन तिरोहित हो जाते 

हैं अनजान गलियों में ।अँगुलियाँ अपने लिए शग़ल ढूँढ लेती 

हैं और ‘कुछ कुछ सर्च करने में व्यस्त हो जाती हैं । घण्टे भर  

की माथापच्ची के बाद दिमाग़ अचेतन सा शून्य में गोते लगाता महसूस होता है । 

        ज़िन्दगी की सरसता में नीरसता बैंगलोर के तापमान की तरह बढ़ने लगी है।जिसकी हवा तो अब भी पहले सी है मगर ठण्डक कहीं खो गई है ।दिन एक कप चाय जैसे लगने लगे हैं जो आदतानुसार फीकी चाय में भी मिठास के साथ ताजगी ढूँढने से बाज़ नहीं आते । कप में छनते समय अपने भूरे से रंग और भाप 

के साथ चाय बाँधती तो है अपने आकर्षण में लेकिन मिठास के अभाव में होठों तक आते -आते मुँह में बेस्वादीपन घोल कर ज़ायक़े का आनन्द छीन लेती है  ।समय को अपने ढंग से अपने लिए काटने का फ़ितूर अपने लिए तो कबीर की ‘माया महाठगिनी हम जानी’ की जगह ‘समय महाठग’ बन गया है ।


***

Sunday, December 17, 2023

“दहलीज़”


                                 

अक्सर वे व्यस्तता की दहलीज़ पार कर वक़्त को छलावा देकर फोन पर अपने -अपने दुख- सुख साझा करती हैं और ऐसा करते-करते भूल जाया करती हैं वक़्त को । उस वक़्त.., वक्त ही कहाँ होता है उनके पास कि वे वक्त को याद करें । कभी-कभी तो अवसर मिलता है उन्हें अपने आपको रिक्तता की सरहद पर खड़े हो कर खुद को पहचानने के लिए ।

      कितनी ही स्मृतियों की गठरियाँ .., स्मृतियों की अटारियों में से  धूल और जालों के बीच से निकाल कर वे उन्हें खोलती हैं और कड़वे-मीठे पलों को आज और कल के साथ जीते हुए कभी बेलौस हँसती हैं तो कभी स्वर अवरुद्ध भी कर बैठती हैं  । अपनेपन की संजीवनी को आँचल में समेट कर दुबारा मिलने का वादा करके लौट जाती हैं अपनी -अपनी सीमाओं में,जहाँ उनका अपना-अपना संसार हैं ।कमाल की बात यह है कि सब कुछ भरा-भरा होने के बावजूद भी रिक्तता का खाली कोना कहीं शेष रह जाता है ।जो वे गाहे-बगाहे इस फ़ुर्सत नाम की दहलीज़ पर आकर भरती हैं ।


                                                  *** 

Sunday, October 22, 2023

“उलझन”

 ( Click by me )

                 लिखना-पढना अब उन साड़ियों की तरह हो गया जो न जाने कब से बंद पड़ी हैं पारदर्शी पन्नियों में.., विचार आते हैं और अन्तस् की गहराइयों को स्पर्श करते हुए न जाने कैसे शून्य में खो जाते हैं ।मेरे लिए सलीके से जीने के लिए खुद को चाहना और अभिव्यक्त करना बड़ा ज़रूरी होता है  और वो कहीं खो सा गया है ।शब्द-शब्द बिखरे हैं चारों तरफ। चुन कर माला गूँथनी भी चाहूँ तो फिसल जाते हैं मोतियों की मानिन्द । उदासीनता का भाव आसमान की घटाओं सा घिर आया है पढ़ने -लिखने के मामले में ।

                                  जानती हूँ अभिव्यक्ति के प्रकटीकरण में जड़ता कम से कम मेरे लिए व्यक्तित्व में कहीं न कहीं अपूर्णता है जिसे पूर्ण बनाने का दायित्व भी इन्सान का स्वयं का ही है । इस जड़ता के समापन के लिए खुद की खुद से जंग जारी है ।

                                            ***

Friday, August 11, 2023

“संदूक"

बहुत दिनों के बाद आज समय मिला है ..आलमारी ठीक करने का । कितनी ही अनर्गल चीजें रख देती हूँ इसमें और फिर साफ करते करते सलीके से  ना जाने कितना समय लग जाता है ।  कितनी स्मृतियाँ जुड़ी होती है हर चीज के साथ ..और मन है कि  डूबता चला जाता है उन गलियारों में और जब काम पूरा होता है तो सूर्यदेव अस्ताचलगामी हो जाते हैं । ऐसे समय में  अक्सर बचपन का घर और माँ का करीने से जँचा कमरा घूम जाता है नज़रों के आगे । इस आकर्षण का कारण माँ के सलीकेदार होने की प्रंशसा का होना मुख्य है जो घर के सदस्यों के अतिरिक्त रिश्तेदारों से भी सुनने को मिलती थी । माँ के कमरे में दीवारों में बनी आलमारियों में एक आलमारी पर सदा ताला लगा देखती थी हमेशा और उसकी चाबी का गुच्छा माँ की साड़ी के छोर से बंधा हुआ…,अगर पल्लू के छोर पर नहीं तो पक्का रसोईघर के सामान के बीच रखा ,जिसे वे प्रायः भूल जाया करती थीं काम करते हुए । और उसे ढूंढने का श्रेय मेरे हिस्से में सबसे अधिक आता था । माँ जब भी आलमारी खोलती सूटकेसों के साथ करीने से रखी पुरानी बेडशीट पर लोहे की प्रिटेंड संदूक को जरूर अपलक निहारती दिखती और मैं उनके गले में हाथ डाल कर झूलती हुई पूछती --'तुम्हारी तिजोरी है माँ ?'  स्नेह में डूबा लरजती आवाज में उनका जवाब होता -- हाँ.. तेरी नानी की भेंट है यह ।और मैं उलझा देती उन्हें बहुत सारे प्रश्नों में..जिनकी उलझन से बचने के लिए वे सदा ही  मुझे-- जा पढ़ाई कर.. कह कर चुप करा देती ।

                      अपने घर में जब भी फुर्सत से आलमारियां ठीक

करती हूँ ...माँ की आलमारी और प्रिटेंड सा संदूक याद आ जाता

 है । माँ का संदूक को सावधानी से रखना , करीने से खोलना ,  कपडों की तहों में चिट्ठियाँ रखना ...कुछ ननिहाल से मिली भेंटों को अपलक तांकना ; बालमन को तो समझ नहीं आता था पर अब समझ आता है ।  संदूक का छोर पकड़ती माँ  मानो हाथ पकड़ती थी अपनी माँ का .., उसमें रखे सामान को सहेजती माँ का बालमन भी अपने बचपन के गलियारों में विचरण करता ही होगा मगर  उनके एकान्तिक अहसासों की एकाग्रता को भंग करती कभी मैं  तो कभी भाई -बहन उनको उनके बचपन से बड़प्पन के संसार में ले आया करते थे मानो कह रहे हो -- "तुम 'लाइट हाउस' हो हमारा … कहाँ जा रही हो माँ?"   आज माँ नहीं हैं.. मैं आलमारी ठीक करते करते मन से माँ की तरह भटक रही हूँ यादों की उन विथियों में … जहाँ माँ का संदूक  है ..और अब है भी या नहीं पता नही...जिसमें ना जाने कितने अनकहे अहसास बंद थे माँ के करीने से सजाये हुए .. उन्हीं को याद करती मैं वापस लौट आती हूँ अपनी आलमारी के पास बिखरे यादों के संदूक के साथ ।


                                        *

Thursday, May 11, 2023

“अख़बार”

गेट में घुसते ही अफरा-तफ़री का माहौल देख उसका माथा ठनका और वह मन ही मन बुदबुदाई - “देर तो नहीं हुई ..,ना ही कोई इंस्पेक्शन होने वाला था आज ।”

अजीब सा तनाव महसूस करती हुई वह ऑफिस में घुसी कि हेड ने उससे सवाल किया- “आज का अख़बार देखा ?” 

 -“नहीं मैम ! सुबह-सुबह भाग-दौड़ में कई बार हैडिंग देखनी ही मुश्किल हो जाती है..,न्यूज़ पेपर की बारी छुट्टी के बाद शाम की चाय के साथ ही आती है ।” अभिवादन के साथ उसने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया और उन्हें व्यस्त देख सिग्नेचर के बाद पेन को उँगलियों के बीच घुमाती हुई स्टाफ़ रूम की तरफ़ बढ़ गई । 

                   वहाँ उसे अपने दो-चार साथी  किसी गंभीर चर्चा मे व्यस्त लगे । उन्हीं के बीच जगह बनाती वह दीवार से लगी अपनी आलमारी की ओर बढ़ी लेकिन हेड की बात और टेबल पर पड़े पेपर ने उसके कदम रोक दिए  ।  जिज्ञासा से उसने पन्ने पलटने आरम्भ किये ही थे कि एक पेज पर छपी फोटो देख कर वह सन्न रह गई ।

 कॉलम का शीर्षक और अंदर छपे शब्दों के साथ उसके लिए  सहयोगियों के संवाद भी कानों में पड़ी कई दिन पूर्व  की आवाज़ों की धमक में गौण होते चले गए । 

     - “आगे रेगुलर पढ़ाने के लिए घर वाले तैयार नहीं हैं मैम ! खुद तो गई सो गई घर की बाकी लड़कियों के रास्तों में काँटे बो गयी वीरां । घर की लड़कियाँ पढ़ना चाहेंगी तो  प्राइवेट ही पढ़ सकेंगी अब ।” टीसी के लिए एप्लिकेशन उसे थमाते हुए महिला  ने डबडबाई आँखों के साथ भरे गले से कहा था ।

            - “पता नहीं क्यों किया उसने ऐसा..,लड़की तो बहुत अच्छी और होशियार थी ।”  महिला के हाथ से पानी का  ख़ाली ग्लास  ट्रे में रख वहाँ से निकलती बाईजी बोलीं ।

        हाथ में पकड़े अख़बार में वीरां की खिलखिलाती तस्वीर देख उसकी आँखें छलछला उठीं ।

      

                                       ***

Wednesday, May 3, 2023

“उधेड़बुन”

 

                                             

किसी बात के चलते किसी घनिष्ठ ने कभी कहा कि -“एक वक़्त के बाद लोग जम नहीं पाते किसी जगह..।” और मैंने हँसते हुए प्रतिवाद किया था -  “अच्छा !! बरगद ,पीपल , नीम नहीं रहते ..,मनी प्लांट हो जाते हैं कहीं भी लगा दो .., बस लग ही जाते हैं ।” 

       शायद उन्हें मेरी बात पसन्द नहीं आई और चुप्पी साध ली ।   मौन अंतराल को भरने के लिए हमारे बीच कोई दूसरा विषय छिड़ गया और इसी के साथ बातों का सिलसिला भी कहीं और मोड़ पर मुड़ गया । मगर उनका वाक्य और अपना संवाद रह-रह कर कानों में गूंजता है जब भी मन भटकता है ।

     रमता जोगी जैसा स्वभाव बहुत काम का है रोज़ी-रोटी की ख़ातिर यहाँ-वहाँ प्रवास कर रहे लोगों के लिए या फिर बन जाता है आवश्यकतानुसार । इसीलिए कहा जाता रहा होगा “आवश्यकता आविष्कार की जननी है” यहाँ रिसर्च जैसी कोई बात नहीं बस मानव व्यवहार की बात है ।उसमें भी समयानुसार परिवर्तन आम है । परिस्थितियों के अनुसार पानी की तरह ढल जाता है आदमी भी ।

          आजकल मेरा मन असीम से ससीम के बीच चक्कर घिन्नी में बँधे लट्टू सा घूमता रहता है । कठिन समय के भंवर से बाहर निकलने के लिए कई बार ढलती साँझ में नीड़ में लौटते परिन्दों सा वह अपनी जड़ों को ढूँढता है तो कई बार लौट आता उसी थान के खूँटें पर जहाँ ढलती साँझ और नीड़ के परिन्दों का अस्तित्व कल्पनामात्र है । जीवन का यही शाश्वत सत्य हम अक्सर जीते हैं । जिसे न छोड़ते बन पाता है और न पकड़ते बन पाता है ।


                                       ***

Tuesday, April 4, 2023

“जन्मभूमि ॥ हाइबन ॥



 “यहाँ के बाज़ार में कुछ नहीं मिलता ..,बस नाम ही नाम है आपके शहर का । इतना बड़ा नाम और छोटा सा बाज़ार ।” नई बहू  गाय को दुहते हुए भुनभुनाई ।

  “अरी बावली ये तो पढ़ने वाले बच्चों का ठाँव है । कितनी दूर में फैली कितनी बड़ी कॉलेज कि एक गाँव बस जाए  फिर उतनी ही बड़ी सीरी और मूजिमघर (म्यूज़ियम) । मूजिमघर  तो दूर दिसावर से आए लोग भी देखने आते हैं । कितना बड़ा हॉस्पिटल है यहाँ आस-पास के गाँवों के लोग इलाज की ख़ातिर यही तो आते हैं । इन सब से नाम बड़ा है यहाँ का .., मैं ठीक  कह रही हूँ ना बेटी !” दूध के लिए केतली थामे खड़ी मुझको वार्तालाप  में सम्मिलित करते हुए अनपढ़ सास ने उपले थापते हुए कहा ।सहमति में गर्दन हिलाते हुए मैं उनकी समझाईश भरी बातों से चकित थी ।

            बैचलर ऑफ एजुकेशन टीचर ट्रेनिंग कॉलेज के सभागार में कभी-कभी सेमिनारों का आयोजन होता था। एक बार वहाँ भी अपने छोटे से शहर के लिए मन गर्वित हो उठा जब सभी शिक्षार्थी साथियों को एक छोटे से स्पीच से पूर्व मेरे परिचय में प्रिन्सीपल सर को यह कहते सुना - “अब ये ऐसी जगह का नाम लेंगी जहाँ इस सेमिनार में बैठा हर सदस्य जाना चाहेगा ।अब की बार “एजुकेशन टूर” पर आपको वहीं ले जाने का प्रोग्राम है ।”

                    कुछ इसी तरह के वाक़यों को  देखते सुनते वह समय भी आ ही गया जिसके बारे में अक्सर सुना है कि  - “जहाँ का दाना-पानी  आपके नसीब में लिखा होता है वहाँ आपको जाना ही पड़ता है ।”

              पूर्व और पश्चिम का अनूठा संगम लिए दिल्ली और जयपुर के बीच लगभग समान दूरी पर अवस्थित है “पिलानी”। जन्म और कर्म से जुड़ी मेरी जन्मभूमि .., मेरी माँ की स्मृतियों की तरह इसकी स्मृतियाँ  भी बहुत कस कर बाँधे है मुझे खुद से । 

       कहते हैं कि किसी की अहमियत आपके लिए क्या है इसका भान बिछोह के बाद अनुभव होता है । सिलीकॉन सिटी के नाम  से मशहूर बैंगलोर में रहते हुए मैं अक्सर उसे यहाँ के माहौल में कभी कॉर्नर हाउस पर आइसक्रीम खाते चेहरों में तो कभी चेरी ब्लॉसम और गुलमोहर की कतारों के बीच नीम और पीपल के रूप में ढूँढ़ती हूँ  और बरबस ही मेरा मन कह उठता है -


ओ रंगरेज ~

तेरे नेह का रंग

बड़ा गहरा।


*