बहुत दिनों बाद अपने गाँव जाना हुआ तो पाया कि शान्त सा कस्बा अब छोटे से शहर में तब्दील हो गया और बस्ती के चारों तरफ बिखरे खेत -खलिहान सुनियोजित बंगलों
और कोठियों के साथ-साथ शॉपिंग सेन्टरों में बदल गए हैं। जिन्हें देख शहरों वाले कंकरीट और पत्थरों के जंगलों
का सा अहसास हुआ मगर अन्दर की और जाते ही लगा
कुछ भी तो नही बदला है। वक्त के साथ पुरानी गलियाँ,
घर और हवेलियाँ सब बूढ़े हो गए थे ।
घर के सभी सदस्यों से मिल कर कुछ उनकी सुन
कर तो कुछ अपनी सुना कर अड़ोस-पड़ौस का हाल
जानना तो बनता ही था। ऐसे मे उसके बारे में….,जो अजनबीयत की चादर में लिपटी अपने तल्ख स्वभाव के कारण जानी जाती थी……, ना जानती ऐसा संभव ही
नही था सो फुर्सत मिलते ही चल दी उस से मिलने।
सुना है वह आज भी दो चौक की पुराने जमाने की उसी
दो मंजिली हवेली में अकेली ही रहती है। उसे देख कर
लगा जैसे पुरानी हवेलियाँ सर्दी, गर्मी और बारिश झेलते- झेलते मटमैली हो जाती हैं वैसे ही उम्र ने उसके व्यक्तित्व
में भी शिकन डाल थका सा बना दिया हैं कुछ बोलते से
चेहरे के साथ व्यग्र सी आँखें मुझे देख कर मुस्कुरा
भर दी---- “कैसी हो? कब आई?” जैसे दो जुमले मेरी
तरफ उछाल कर हवेली को ताला लगा कर वह चल दी
शायद थोड़ा जल्दी में थी। एकबारगी उसका व्यवहार
अजीब लगा लेकिन पुरानी बातें याद कर मन की
शिकायत जाती रही।
स्वभाव से रुखी और मूडी….,बहुत कम लम्बाई के कारण बच्चों की भीड़ में खो जाने वाली वह प्रतिमा सुशिक्षित और घरेलू कार्यों में दक्ष महिला थी। छुट्टी वाले दिन हवेली से बाहर तीन- चार चक्कर लगाना उसकी दिनचर्या का अविभाज्य हिस्सा था। जरुरत पड़ने पर कभी किसी अचार की विधि तो कभी आयुर्वेदिक दवाई के बारे जानकारी के लिए उसके पास जाती कस्बे की औरतें
उसकी पीठ पीछे खीसें निपोरती उसकी जन्म कुण्डली
खोल कर बैठ जाती…., कभी चर्चा का विषय उसकी
शादी होना तो कभी कुँआरी होना होता। शुरूआत में मुझे लगा कि ये कथा-कहानियां जिस दिन उसको पता चल जायेगी वह बखिया उधेड़ देगी सब की लेकिन बाद में
एक दिन स्वेटर का डिजायन पूछने के सिलसिले में बात
होने पर पता चला कि उसे सब बातों का पता है। मेरे पूछने
पर कि--”आप कहाँ से हैं?” उसने वापस मुझी पर सवाल दाग दिया ----”क्यों पता नही है ? सब तो बातें करते हैं, मैं कौन हूँ , कहाँ से हूँ।” उसके प्रश्नों से बौखला कर मैंने
जवाब दिया---”नही जानती कुछ भी,कोई बात नही
करता आपके बारे में…., कम से कम मैंने तो नही सुनी।”
यह कह कर उसको शान्त कराना चाहा मगर मुझे ऊन के धागों और सिलाईयों के पीछे उलझे चेहरे की उलझन
और बैचेनी साफ दिखाई दे रही थी।
जहाँ तक मैं उसके बारे में जानती थी वो
यही था कि अपने दूर के रिश्तेदार की हवेली में रहती है
और पास ही कहीं ग्रामीण शाखा बैंक में नौकरी करती है । हवेली के मालिक पूर्वोतर भारत के किसी शहर में रहते हैं, हवेली की देखभाल पुश्तैनी नौकर के भरोसे थी लेकिन
किसी संबंधी के हाथों जायदाद की देखरेख हो इससे बढ़िया और क्या हो सकता है सो सहर्ष हवेली के दो कमरे उसके लिए खोल दिए। कुछ ही महिनों में ही उसके कड़े और
शक्की व्यवहार से तंग आ कर नौकर ने मालिकों से कार्य करने में असमर्थता जता कर मुक्ति पाई और परिवार
सहित अपने गाँव की शरण ली। उसके बाद यह हवेली
की केयर-टेकर पदस्थापित हुई। पूरे घटनाक्रम का पता
चलने पर मुझे लगा था कैसे रहेगी वह इतनी बड़ी हवेली
में अकेली। दोपहर में उस गली से गुजरो तो डर लगता है,
पूरी गली सूनी और उस पर चार-पाँच खण्डहरनुमा हवेलियाँ जो “बीस साल बाद” फिल्म के रहस्यमयी वातावरण की
याद दिलाती है। लेकिन वह जमी रही लगभग दस वर्षों
तक देखा उसे यूं ही अकेले रहते और काम पर जाते,
माता-पिता, भाई-बहन…,किसी को भी कभी आते रहते
नही। कभी कभी बड़ी सी V.I.P सूटकेस उठाये बस-स्टैण्ड
की तरफ जाती मिलती तो मैं समझ जाती अपने घर जा
रही है। मुझे ना जाने क्यों उसके रुखे और कड़वे स्वभाव
का कारण उसका अकेलापन लगा अन्यथा वह पढ़ी लिखी स्वावलम्बी महिला थी जो अपनी मान्यताओं और वर्जनाओं के साथ जीने की आदी थी । अपने सन्दर्भ में मौन और
निकट संबंधियों से दूर मानो सारी दुनिया से नाराज।
जब भी मैं उससे मिलती एक “हैलो” का जुमला मेरी और उछाल वह कुशलक्षेम पूछती मगर जैसे ही मैं आत्मीयता जताने आगे बढ़ती वह अनजान बन व्यस्त होने का बहाना जता आगे बढ़ जाती ।
अपने घर की तरफ जाते मैं सोच रही थी ---हफ्ते भर हूँ यहाँ , किसी दिन उसके मन की थाह लूं ; उसे कहूँ ---’मानव जीवन अनमोल है और बहुत सारे उद्देश्य है जीवन के….,
नष्ट होने के बाद कुछ भी तो शेष नही। मौन क्यों हो ?
चुप्पी की चादर उतार फेंको। कुछ तो बोलो.....,
"कब बोलोगी।"