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Friday, December 24, 2021

"कड़वा सच"

“मुझे नहीं रहना व्यवहारिकता के साथ..,इस के साथ मुझे अच्छी वाइब्स नही आती।” - स्वाभिमान कुनमुनाया ।

“तुम्हारी उच्छृंखलता पर अंकुश लगाने के लिए बहुत जरूरी है तुम्हारा इसके साथ होना…, इसके साथ रह कर कुछ सीखो।” आवेश में परम्परा चीखी ।

“मेरा दम घुटता है इसके साथ ।” स्वाभिमान बहस के

 मूड में था।

“याद रखो ! बिना व्यवहारिकता के तुम्हारा अस्तित्व शून्य है।”दहाड़ते हुए परम्परा ने कहा और आवेश में एक झन्नाटेदार थप्पड़ स्वाभिमान के चेहरे पर जड़ दिया ।

“तुम्हारी इन्हीं हरकतों से नैतिकता पहले ही घर छोड़ चुकी

है…,यही हाल रहा तो एक दिन इसको भी खो दोगी ।”

लड़खड़ा कर गिरते स्वाभिमान को संभालते हुए चेतना ने 

गंभीरता से कहा ।

इस कड़वे सच को सुन व्यवहारिकता इतरा रही थी और परम्परा 

के झुके माथे पर चिन्ता भरी सिकुड़न थी ।


***




Monday, November 8, 2021

"स्वभाव"

कुछ किस्से , कहानियाँ  और बातें कालजयी होती हैं और वे हर generation के साथ परिस्थितियों के अनुसार सटीक बैठती हैं । अक्सर सुना है generation gap के कारण बहुत सारी चीजें बदल.जाया करती हैं जैसे फैशन और विचार , सोचने -समझने की पद्धति । कई बार भारी परिवर्तन के कारण सांस्कृतिक परिवर्तन भी दिखाई देते हैं मगर संस्कृति की अपनी विशेषता है यह  नए बदलावों  को आत्मसात करती निरन्तर गतिमान रहती है । बेहतर बातें 
कालजयी और सामयिक बातें समय के साथ समाप्त हो जाती हैं ।
                आज मैं एक छोटी सी कहानी आप सब से साझा 
करना चाहूँगी जिसकी ‘सीख‘ मेरे मन को बहुत बार कठिन परिस्थितियों मे भटकने से रोकती है ।
                         एक व्यक्ति प्रतिदिन प्रातःकाल नदी में स्नान करने जाता था एक दिन उसने देखा , एक बिच्छू नदी के जल में डूब रहा है । उस व्यक्ति ने तुरन्त बिच्छू को बचाने के लिए अपनी हथेली उसके नीचे कर दी और बिच्छू को किनारे पर छोड़ने के लिए जैसे ही हथेली को ऊपर किया हथेली की सतह पर उसने डंक मार दिया ।दर्द से तड़प कर व्यक्ति ने जैसे ही हाथ झटका कि बिच्छू पुनः पानी में डुबकी खा गया । उस आदमी ने अपने दर्द को भूलकर अब की बार दूसरे हाथ से उसे बचाने का प्रयास जारी रखा । एक भला मानस 
नदी किनारे बैठा सम्पूर्ण घटनाक्रम को देख रहा था उस से 
रहा नही गया ,वह बोला - “मूर्ख इन्सान ! एक बार के डंक से 
जी नही भरा कि दूसरा हाथ आगे कर दिया ।"
                                   डूबते -उतराते बिच्छू से दूसरी हथेली में डंक खाने के बाद उसको निकालने के लिए प्रयास करते आदमी ने मासूमियत से उत्तर दिया -  “जब यह संकट की घड़ी  में अपने स्वभाव और गुण को नही भूल पा रहा तो मैं इन्सान होकर अपने गुण और स्वभाव का परित्याग कैसे करुं।"

Tuesday, October 19, 2021

"डर"

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पाँच साल पहले डोनट में चॉकलेट के साथ लगा कुछ क्रंची सा ..शायद ड्राइफ्रूट का कोई टुकड़ा उसके दाँत में घुसता चला गया और बाइट के साथ तारीफ करने की जगह मुँह इरीटेशन के 

कारण खुला रह गया । हैल्थ प्रॉब्लम्स के चलते 

हॉस्पिटलस् के आजू-बाजू जिन्दगी गुजारने के बाद भी पता नहीं क्यों वह डेंटिस्ट के पास जाने से डरती है शायद माँ याद

आ जाती है और उस याद के साथ ही उसकी सारी बहादुरी 

भी उड़न छू हो जाती है । सो होम रेमीडिज़ ढूंढ़ी गई - क्लोव,

हींग, काली मिर्च और भी न जाने क्या-क्या.., हार कर 

नये शहर में डेंटिस्ट ढूंढा गया । एक्सरे के बाद राय मिली 

इसका 'रूट ट्रीटमेंट' सही रहेगा , कैविटी नसों तक पहुँच गई । डेंटिस्ट के यहां फ्लॉसिंग के बाद दर्द ठीक हो गया  तो  खुद की समझदारी ने  सिर उठा लिया - 'फ्लॉसिंग किट ढूंढी गई 

दिन में दो बार ब्रश करते तो हैं ..,अब फ्लॉसिंग भी किया 

करेंगे । अब अपने आप को इतना समझदार समझने में बुराई 

भी क्या है ?

 पाँच साल बाद…, वही डॉक्टर.., वही बैंगलुरू का इंदिरा नगर 

और वही वह …, बुखार और दर्द साथ लिए ।

 ऑन लाइन वीडियो कान्फ्रेंसिंग से बात बनती न देख फाइनली क्लीनिक की शरण लेनी पड़ी । तीन-चार घंटे में कभी ये डॉक्टर कभी वो डॉक्टर..ढेर सारे टेस्ट और चार-पाँच सीटिंगस् 

का फैसला ।

पुरानी जगह को देख पुराना डर उसके सामने  मुँह खोले खड़ा था जिस से डर कर  उसने वैसे ही आँखें बंद कर रखी थी जैसे कबूतर बिल्ली को देख कर कर लेता है । 

***


Thursday, September 23, 2021

"अन्तराल"

                          

【चित्र:-गूगल से साभार】


"कोई ढंग की थैली नहीं है तुम्हारे पास ? सामान ढंग से

नहीं डाल सकते ।" तेज और कठोर आवाज में स्नेहा ने तमतमाते हुए सामान पैक करते दुकान वाले  को कहा ।

आस-पास आते जाते लोग और  दुकानदार को देख कर

ऋतु को बड़ा अजीब लगा उसने धीरे से स्नेहा का हाथ दबाते हुए कहा - "शांत बालिके ! क्यों गुस्सा कर रही हो ? देखो

जरा माँ की तरफ कैसे मुँह उतर गया है उनका ।" स्नेहा के साथ वह भी उन्हें चाची की जगह माँ ही कहने लगी थी ।

उसने उचटती सी दृष्टि ऑटो में बैठी माँ पर डाली और पुनः लिस्ट के सामान की खरीददारी में उलझ गई और ऋतु

उलझ गई पाँच बरस पूर्व के वक्त में…., जब स्नेहा का

स्वभाव बहुत मृदुल हुआ करता था ।

                    "दीदी ! यह साड़ी कैसी लगी ?"- गुलाबी रंग

की खूबसूरत सी साड़ी को उसके सामने फहराते हुए स्नेहा

का चेहरा दमक रहा था ।

"बहुत खूबसूरत.., ब्लाउज़ पीस तो एकदम यूनिक है ।"-  ऋतु ने उसकी खुशी में शामिल होते हुए कहा ।

   "फिर ठीक है आज ही उद्घाटन करते हैं ।"  -साड़ी समेटती हुई वह बगल वाले घर में घुस गई ।

"कैसी लग रही हूँ मैं ?"-  खनकती मिठास भरी आवाज़ में लम्बा सा सुर खींचती हुई अप्सरा सी स्नेहा  शाम को खड़ी मुस्कुरा रही थी ऋतु के आगे । और वह ठगी सी देखती रह गयी उसको।

              "न तीज न त्यौहार…,इसको तो बस सजने संवरने

के बहाने चाहिए होते हैं और एक तुम.., बहुत सुन्दर, बहुत सुन्दर कह चने के झाड़ पर चढ़ा देती हो इसे ।" - छत से

कपड़े उतारती उसकी माँ ने आंगन में झांकते हुए  कहा।

               "कहाँ खो गई दीदी अब चलो भी !" उसकी तन्द्रा

भंग करते हुए स्नेहा ने कुछ पैकेट ऋतु को भी पकड़ा दिये । ऑटो में  बैठते हुए माँ की दुख में डूबी आवाज़ कानों में

पड़ी  - "लड़की कैसी नीम सी खारी हो गई है तू !" स्नेहा की थोड़ी देर पहले की तल्ख़ी याद करते हुए ऋतु ने माँ को समझाते हुए कहा -"नीम भी बुरा नहीं होता माँ.., आजकल

तो उसकी गुणवत्ता सभी मानते हैं ।"

ऑटो चल पड़ा स्नेहा  माँ को जवाब दिये बिना निर्लिप्त भाव से सामान की लिस्ट पर पैसों का हिसाब लगाने में लग गई

और माँ न जाने किस सोच में डूबी हुई ऑटो से बाहर देख

रही थी। ऋतु  उस खामोशी में स्नेहा के मृदुलता से खारेपन

के सफर का अन्तराल नापने का प्रयास कर रही थी।

Monday, August 23, 2021

"कटु यथार्थ"

"यहाँ पर तो एक फैमिली रहती थी पहले अभी तो बड़ी

सुनसान लग रही है यह हवेली ।" 

बहुत समय के बाद बाहर से लौटे अंशुमन ने अपने दोस्त समीर

से चाय पीते हुए पूछा । वैसे उसे याद तो 'एक फैमिली' की

इकलौती लड़की का नाम भी था और उसके पिता का नाम

भी मगर दोस्त और उसकी पत्नी के आगे बोलना नहीं

चाहता था ।

   "पता नही क्या झगड़ा था आपस में परिवार का…,एक दिन

सुबह -सुबह चीख-चिल्लाहट की आवाज़ें आईं । हम लोगों ने

छत से देखा तो  चार-पाँच आदमी सामान बाहर फेंकते दिखे

उसके बाद से यह हवेली बंद ही पड़ी है ।" अपने बच्चे को पत्नी

की गोद में देते हुए समीर ने जवाब दिया।

         "ऐसे-कैसे कोई किसी के साथ कर सकता है ?

तुमने खामोशी कैसे ओढ़ ली ?" घटनाक्रम जान कर अंशुमन

आवेश में आ गया ।सफाई देते हुए बड़ी गंभीरता से समीर

बोला- "देख सीधी सी बात है हम तो नये आए लोग हैं यहाँ..,,

पूरे मोहल्ले में सब घर बंद थे पता तो सभी को था मगर एक

भी बंदा बाहर नहीं निकला । बाद में सभी ने यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि आपस में भाई-भाई का झगड़ा था ।  पता

नहीं कल को वे एक हो जाएँ ,हमें क्यों टांग अड़ानी किसी के 

फटे में ।"

            हाथ की चाय का आखिरी घूंट अंशुमन को कड़वा 

लगा कटु यथार्थ जैसा ।

                               ***

Saturday, August 7, 2021

"टेढ़ी मुस्कुराहट"

सगाई समारोह की गहमागहमी में  सांवली सलोनी 

पीहू खुश थी अपनी मनपसन्द ड्रेस के साथ । 

आज की स्कूल से छुट्टी का वह पूरा फायदा उठाएगी अपनी पसन्दीदा आइसक्रीम खा कर । फिर से भूख लगेगी तो वही स्ट्राबेरी फ्लेवर वाली आइसक्रीम ही खाएगी मैन्यू देख कर उसने फैसला कर लिया था । 

"सुनो !" - अचानक अपने पीछे से आवाज सुन पीहू ने पलट कर देखा ।

-" वो अंकल जो सामने खड़े हैं उन्हें बोलो मैं बुला रहा हूँ उनको .., देखो धीरे से कहना कोई सुने नहीं ।"

"आपके हाथ में मोबाईल है ..आप बात क्यों नहीं कर लेते ।"

 हाजिर जवाब पीहू का मूड नहीं था संदेश वाहक बनने का।

कुछ देर इधर-उधर अपनी हमउम्र रिश्तेदार लड़कियों के साथ घूम कर वह अपनी फेवरिट आइसक्रीम के साथ इतेफ़ाक से  उसी जगह आ खड़ी हुई जहाँ वह परेशान लड़का उन्हीं अंकल के साथ सरगोशी भरी बहस में उलझ रहा था -   'आपने कहा था लड़की बहुत सुन्दर है बस रंग थोड़ा सा दबा है जोड़ी अच्छी लगेगी तुम दोनों की लेकिन यहाँ तो दिन-रात का अन्तर दिख रहा है..आप भी बस पापा ! मैं नहीं पहननाने वाला उसे अंगूठी ।'

- "चुप कर.., बहुत  दे रहे हैं वे । तुम दोनों को भी तो भेज रहे है  यू.एस.ए. … और क्या चाहिए ।" उनकी बहस सुन कर पीहू हट गई वहाँ से... 'बड़ों की बात नहीं सुननी चाहिए ।' यही सोच कर 

लेकिन मन परेशान हो गया सौम्या दीदी के लिए ...अगर कुछ गड़बड़ हो गई तो ? सोचते हुए उसने आइसक्रीम वही रख दी मेज पर ।

 थोड़ी देर बाद  बाद रिंग सेरेमनी आरम्भ हो गई ।

 मंत्रोच्चार के बीच सौम्या दीदी और वही परेशान लड़का मुस्कुराते हुए एक दूसरे को अंगूठी पहना रहे थे।मेहमान और मेज़बान  उत्साहित हो कर जोड़ी को सराह रहे थे-- लवली कपल.., मेड फॉर इच अदर…, लाखों में एक...,और बधाई लेने और देने का सिलसिला जारी हो गया । 

 पीहू  भी एक टेढ़ी मुस्कुराहट के साथ स्ट्राबेरी फ्लेवर की आइसक्रीम के स्टॉल की तरफ बढ़ गई ।



                                    ***

Tuesday, July 27, 2021

"खुशी"

             

अपना वजूद भी इस दुनिया का एक हिस्सा है उस पल को

महसूस करने की खुशी , आसमान को आंचल से बाँध

लेने का  हौंसला , आँखों में झिलमिल -झिलमिलाते  सपने

और आकंठ हर्ष आपूरित आवाज़ - “ मुझे नौकरी मिल गई है , कल join करना है वैसे कुछ दिनों में exam भी हैं…,

 पर मैं सब संभाल लूंगी।” कहते- कहते उसकी आवाज

शून्य में खो सी गई ।

 मुझे खामोश देख वो फिर चहकी - “ मुझे पता है 

आप अक्सर मुझे लेकर चिन्तित होती हो , मैंने सोचा सब

से पहले आप से खुशी बाँटू। “

           उसकी बात सुनते हुए  मैं सोच रही थी अधूरी पढ़ाई ,

गोद में बच्चा ,घर की जिम्मेदारी और ढेर सारे सामाजिक

दायित्व । ये भी नारी का एक रुप है कभी बेटी , कभी पत्नी

तो कभी जननी । हर रूप में अनथक परिश्रम करती है और

अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए अवसर की तलाश

में रहती है ।अवसर मिलते ही पल्लवित होती है अपनी  पूर्ण सम्पूर्णता के साथ।

                उसके  दमकते चेहरे और बुलन्द हौंसलों को

देखकर मुझे बेहद खुशी हुई और यकीन हो गया कि एक

दिन फिर वह निश्चित रूप सेे इस से भी बड़ी खुशी मुझसे

बाँट कर मुझे चौंका देगी ।

          

                                ***

Sunday, July 4, 2021

"महिला दिवस"

 चार-पाँच औरतें खिलखिलाती हुई होटल में लंच हॉल  में घुसी और कोने में व्यवस्थित सीटिंग व्यवस्था पर जा बैठी । शायद "रिजर्व" की तख्ती पर ध्यान देने की फुर्सत नहीं थी किसी के पास । सभी अपने अपने लुक्स पर फिदा थी और एक -दूसरे से ज्यादा सलीकेदार जताने की कोशिश में लगी थी तभी एक वेटर ने टेबल के पास आ कर अदब से सिर झुकाते हुए विनम्रता से कहा-"यह टेबल रिजर्व है मैम ,मैं आप लोगों के लिए दूसरी तरफ व्यवस्था कर देता हूँ ।"

"दूसरी तरफ क्यों ? जो नहीं आए उनके लिए भी तो व्यवस्था कर सकते हो ।" एक महिला ने रौब के साथ वेटर को लगभग झिड़कते हुए कहा ।

स्थिति की गंभीरता देख कर मैनेजर उनको दूसरी तरफ बैठाने की व्यवस्था का निर्देश देकर आगे बढ़ा

 ही था कि तीन लड़के और दो लड़कियों का समूह कंधों पर बैग लटकाए बिखरे बालों और अस्त-व्यस्त कपड़ों और लस्त-पस्त हालत में अपनी रिजर्व टेबल की ओर आगे बढ़ा । बैठने से पूर्व उनके चेहरों पर परेशानी और व्यग्रता साफ दिखाई दे रही थी ।

सीटों की अदला-बदली में कुछ पल की भिनभिनाहट जरूर हुई पर अन्तत: सब तरफ शांति थी और हल्के संगीत के साथ माहौल खुशनुमा । उधर महिलाएं दूसरी टेबल पर बैठ कर अपने

बिगड़े हुए मूड को ठीक करने के प्रयास में लगी थीं । ड्रेसस् और मेकअप के बारे में एकबारगी भूल अब उनके चर्चा का विषय टेबल पर बैठे युवक-युवतियों का समूह था । 

 "घर में यह 'शो' करेंगे बेचारों को समय ही नहीं मिलता । यहाँ क्या गुलछर्रे  उड़ रहे हैं । हम तो ऐसा सोच भी नहीं सकते थे ।" - किसी ने गहरी सांस भरते हुए कहा ।

"सच कहा तुमने आजादी तो इन्हीं के पास है । हमने तो घर-गृहस्थी की  चक्की में झोंक दिया खुद

 को ।"- दूसरी ने मानो बात पूरी की ।

"यार सेलिब्रेट करने आए हैं छोड़ो ये सब मूड मत ऑफ करो ।" उन्हीं में से एक ने विषय बदलने की कोशिश की ।

      पहली टेबल पर किसी प्रोजेक्ट की सक्सेस में आने वाली टेक्निकल प्रॉब्लम्स पर चर्चा के साथ स्टार्टरस की प्लेटें भी  साफ हो रही थी शायद भूख अपने चरम पर थी । तभी उनमें से एक लड़की ने माथे पर हाथ मारा - ओ शिट् .., मैं तो भूल गई थी । आधे घंटे में मेरी "वन ऑन वन" है । मैं जाती हूँ ,

तुम लोग लंच इंजॉय करो…,

"ठहर मैं भी चलती  हूँ ।" दूसरी ने फ्रेंच फ्राईज़ मुँह में लगभग ठूंसते हुए बैग उठाया ।

"यार इन लोगों का तो हो गया "महिला दिवस" 

बस ..,ट्रफिक ना मिले और ये पहुंच जाए टाईम 

से ।" - एक लड़के ने चिंता जताई । बाकी दो की आँखों में भी वहीं थी ।

चीयर्स !!! हैप्पी वीमन्स डे !!

 दूसरी टेबिल से ठहाका गूंजा । शायद वहाँ खाने से पूर्व ड्रिंक्स आ गईं थीं ।

पहली टेबिल पर खामोशी पसरी थी । 


***

Tuesday, June 22, 2021

संस्मरण-स्मृतियों के गवाक्ष

                   

【चित्र:-गूगल से साभार】


बूँदों की छम-छम…,उमड़ती-घुमड़ती काली घटाएँ..,भला किसे अच्छी नहीं लगती । सावन-भादौ में बारिश की झड़ी, चारों तरफ हरियाली प्रकृति का भरपूर आनन्द  रेगिस्तान में नखलिस्तान जैसे छोटे से शहर पिलानी में पल-बढ़ कर सदा ही लिया । किशोरावस्था के लगभग चार वर्ष असम में गुजरे जहाँ प्रकृति ने  खुले हाथों से अपना प्यार लुटाया है । घने वृक्षों, नदियों और वर्षा के बिना पूर्वोत्तर भारत की कल्पना ही नहीं की जा सकती। 

प्रकृति का रूखापन  पहली बार तब देखने को मिला जब मुझे बी.एड. करने राजस्थान के चुरु जिले में स्थित सरदारशहर जाना पड़ा। जैसे -जैसे पिलानी पीछे छूटती गई वैसे-वैसे हरियाली से नाता भी टूटता गया । विरल झाड़ियां , छोटे-छोटे खेजड़ी के पेड़ और दूर तक नजर आती सोने सी भूरी मिट्टी के टीले  और उन्हीं के बीच बहुत कम घरों की संख्या । सही मायनों में राजस्थान से अब परिचय हो रहा था 

मेरा । लगभग साढ़े पाँच घंटे के सफर के बाद रेत के धोरों और छिटपुट वनस्पति के बीच एक बहुत बड़े होर्डिंगनुमा गेट पर- "गाँधी विद्या मंदिर शिक्षण प्रशिक्षण संस्थान" सरदार शहर आपका स्वागत करता है।" के साथ ही आने वाले एक साल में  बहुत कुछ सीखना बाकी था । सरदार शहर अपने समयानुसार सुन्दर और सुव्यवस्थित लगा लेकिन पहली बार बरसात और वृक्षों के अभाव को एक शिद्दत के साथ महसूस भी किया । 

 बारिश के अभाव में पानी की किल्लत…,सर्दियों में शून्य तक तापमान देखने के बाद  सूखी गर्मियों की गर्म 'लू'और धूल भरी आँधियाँ देखनी अभी बाकी थी । लेकिन धीरे-धीरे परिस्थितियों से सामंजस्य तो बैठाना ही था ।

 मेरे लिए सब से बड़ी परेशानी पीने के पानी

 की थी । हॉस्टल में मेरे जैसी चार-पाँच लड़कियों को छोड़ कर तमाम लड़कियाँ पीने के पानी को लेकर सहज थी वही हमारे लिए वह पानी बहुत खारा था । अत्यल्प बारिश के कारण रेतीले इलाकों में वर्षा के जल को संग्रहित करने की परम्परागत प्रणाली कुंड या टांके हैं  जिनमें संग्रहित जल का मुख्य उपयोग वहाँ के निवासी पेयजल के लिए करते हैं। प्रदूषण और दुर्घटना को रोकने हेतु इस प्रकार के जल स्रोत ढक्कन सहित तालों से बंद होते हैं।  इनका  निर्माण संपूर्ण मरूभूमि में लगभग हर घर में किया जाता है, क्योंकि मरूस्थल का अधिकांश भू जल लवणीयता से ग्रस्त होने के कारण पेयरूप में काम में लेना असंभव है । अतः वर्षा के जल का संग्रहण यहाँ के निवासियों के लिए दैनिक जल आपूर्ति के लिए अनिवार्य है ।

 कपड़े धोते समय  नल अधिक देर खुला रहने 

पर सफाईकर्मी  के माथे की सलवटें और खीजभरा सुर सुन ही जाता था - "कौन सी जगह से हो ? पानी कितना बरसता है तुम्हारे गाँव में…, बहुत कुएँ-बावड़ी दिखते हैं ?" 

टोकने पर तल्ख़ी जरूर होती थी मगर खाली बैठते तो वहाँ के बाशिंदों का विषम और कर्मठ जीवन सोचने को मजबूर करता कि धरती पर प्रकृति सब जगह एक समान क्यों नहीं हैं ? और फिर याद आता कि अरावली का वृष्टि छाया प्रदेश होने के कारण  अरब सागर व बंगाल की खाड़ी का

 मानसून  थार प्रदेश में बहुत कम वर्षा करता है। 

आजकल बैंगलोर में रहते हुए प्रायः रोज

 बादलों को घिरते और बरसते देख रही हूँ । घनी हरियाली को सिमटते और आवासीय परिसरों में बदलते देख रही हूँ वर्ष भर सुबह-शाम की ठंडक को कम होते और स्वेटर,शॉल,जैकेट्स को आलमारियों में सिमटते देख रही हूँ । 

दिन प्रतिदिन हम अपनी चादर से अधिक पैर पसार कर शहरी विकास और भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए जंगलों और पर्वतीय क्षेत्रों का कटाव कर उन्हें समेटते जा रहे हैं।  मैं थार प्रदेश जैसी विषमताओं के बारे में सोचने से बचना चाहती हूँ । कहते हैं अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता मगर महान पर्यावरणविद सुन्दरलाल बहुगुणा जैसी विभूतियों का समूह अपने देश के हर प्रान्त में देखना चाहती हूँ।


***



     

 














 

  



Saturday, May 29, 2021

"सोचा न था"

कैसे दमघोटू से दिन हैं । न बूंदों की छम-छम में हथेली पसार

कर हाथ भिगोने को मन करता है और न ही खिड़की से बाहर

बारिश की बूंदों को देखते हुए कोई किताब पढ़ने का । संगीत के

सुर भी अब  मन को अपनी और नहीं खींचते । कितनी ही बार

चाहा कुछ पढ़ना मगर रिक्त से बोझिल और उदास से वजूद

 पर एक डर है जो लिपटा है चादर सा ।

 'हैरीपॉटर'सीरीज  में जिक्र है दमपिशाचों का । जो बुरे जादूगरों

के सहयोगी हैं । जब ये आते हैं तो हर तरफ नकारात्मकता

की चादर फैल जाती है जादूगरों के समुदाय में । जितना

शक्तिशाली दमपिशाच उतना ही भय और नुकसान सीधे

सरल जादूगर समाज को । हर जादूगर के पास एक जादुई

छड़ी और कुछ मंत्र जो उनके गुणों  पर आधारित होते हैं जिनका 

प्रयोग वे शक्ति सामर्थ्य  के अनुसार करके दमपिशाचों से

निजात पाते हैं ।

सोचती हूँ कुछ कुछ वैसा ही दमपिशाच  है 

कोरोना वायरस भी । जो पिछले वर्ष के मार्च से अब तक  न

जाने कितनी ही जिन्दगियों को लील गया और अब भी उसका कहर जारी है । आरंभिक दिनों में मेरी सोच थी कि इक्कीसवीं सदी है

ये...अब साईंस ने बहुत उन्नति कर रखी है । महामारी है तो

खतरनाक लेकिन आज हम प्राचीन चिकित्सा पद्धति के भी बहुत

करीब हैं और मेडिकल व्यवस्थाएँ भी अति उन्नत हैं अतः  कोरोना महामारी पर नियंत्रण भी जल्दी  ही हो जाएगा । तब यह अहसास

भी नहीं था इस अज्ञातशत्रु के आगे सब बौने साबित हो जाएँगे ।

लगभग सवा साल के बाद भी कोरोना की स्थिति की

भयावहता जस की तस है ।

  खाली सा मन नकारात्मकता में उलझता जा रहा है ।  खुले

आसमान के नीचे प्रकृति को महसूस करना जैसे जागती

आँखों का सपना हो गया  मेरे जैसे लोगों के लिए जो पहले

से ही ढेर सारी बीमारियां पाले बैठे हैं ।

कभी दो हाथ की दूरी…, कभी छ: हाथ की दूरी..,एक मास्क…,

डबल मास्क.., हाथ धोते-धोते, सैनेटाइजर स्प्रे करते और नई

समस्याओं को न्योता दे रहे हैं हम । वैक्सीनेशन राहत की बात है

मगर ब्लड क्लोटिंग जैसे साइड इफेक्ट में उन लोगों का क्या जो

पहले से ही इस तरह की जेनेटिक बीमारियों से जूझ रहें हैं ।

पहले एक विश्वास था  बरगद की जड़ जैसा…,डॉक्टर ईश्वर तुल्य 

हैं ।और दक्ष आर्युवेदाचार्य हो तो संजीवनी आज भी विद्यमान है ।

उस विश्वास की जड न चाहते हुए भी अब  हिल रही है ।

जीवन को भरपूर जीने की चाह रखने वाला मन और कल्पनाओं

के कैनवास पर अक्षरों के रंग उकेर कर मनचाहा आकार देने

वाली सोच  कभी इतनी  मूक और बेबस हो जाएगी..

…, सोचा न था।

   

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Monday, May 10, 2021

"कब बोलोगी"【कहानी】

 बहुत दिनों बाद अपने  गाँव जाना हुआ तो पाया कि शान्त‎ सा कस्बा अब छोटे से शहर में तब्दील हो गया और बस्ती‎
 के चारों तरफ बिखरे खेत -खलिहान सुनियोजित बंगलों 
और कोठियों के साथ-साथ शॉपिंग सेन्टरों में बदल गए हैं।  जिन्हें देख शहरों वाले कंकरीट और पत्थरों के जंगलों 
का सा अहसास हुआ मगर अन्दर की और जाते ही लगा
 कुछ भी तो नही बदला है। वक्त के साथ पुरानी गलियाँ,
 घर और हवेलियाँ सब बूढ़े हो गए थे ।
        घर के सभी‎ सदस्यों‎ से मिल कर  कुछ उनकी सुन
 कर‎ तो कुछ अपनी सुना कर  अड़ोस-पड़ौस का हाल 
जानना तो बनता ही था। ऐसे मे उसके बारे में….,जो अजनबीयत की चादर में लिपटी अपने तल्ख स्वभाव के कारण जानी जाती थी……,  ना जानती ऐसा संभव ही
 नही था  सो फुर्सत मिलते ही चल दी उस से मिलने।
 सुना है वह आज भी दो चौक की पुराने जमाने की  उसी
 दो मंजिली हवेली में अकेली ही रहती है।  उसे देख कर
 लगा जैसे  पुरानी हवेलियाँ सर्दी, गर्मी‎ और बारिश झेलते- झेलते मटमैली हो जाती हैं वैसे ही उम्र ने उसके व्यक्तित्व 
में  भी शिकन डाल थका सा बना दिया हैं कुछ बोलते से 
चेहरे के साथ व्यग्र सी आँखें‎  मुझे देख कर मुस्कुरा 
भर दी---- “कैसी हो? कब आई?”  जैसे दो जुमले मेरी
 तरफ‎ उछाल कर हवेली को ताला लगा कर वह चल दी 
शायद थोड़ा जल्दी‎ में थी। एकबारगी उसका व्यवहार‎ 
अजीब‎ लगा लेकिन पुरानी बातें याद कर मन की
 शिकायत जाती रही।

                     स्वभाव से रुखी और मूडी….,बहुत कम लम्बाई के कारण बच्चों  की भीड़ में खो जाने वाली वह प्रतिमा सुशिक्षित और घरेलू‎ कार्यों में दक्ष महिला थी। छुट्टी‎ वाले दिन हवेली से बाहर तीन- चार चक्कर‎ लगाना उसकी दिनचर्या का अविभाज्य हिस्सा‎ था। जरुरत पड़ने पर कभी‎ किसी अचार की विधि तो कभी‎ आयुर्वेदिक दवाई के बारे जानकारी‎ के लिए‎ उसके पास जाती कस्बे की औरतें 
उसकी पीठ‎ पीछे खीसें निपोरती उसकी जन्म‎ कुण्डली 
खोल कर बैठ जाती…., कभी‎ चर्चा‎ का विषय उसकी
 शादी होना तो कभी‎ कुँआरी होना होता। शुरू‎आत में मुझे लगा कि ये कथा‎-कहानियां जिस दिन उसको पता चल जायेगी  वह बखिया उधेड़ देगी सब की लेकिन बाद में
 एक दिन स्वेटर का डिजायन पूछने के सिलसिले में बात 
होने पर पता चला कि उसे सब बातों का पता है। मेरे पूछ‎ने
 पर कि--”आप कहाँ से हैं?” उसने वापस मुझी पर सवाल‎ दाग दिया ----”क्यों पता नही है ? सब तो बातें करते हैं, मैं कौन हूँ‎ , कहाँ से हूँ‎।”  उसके प्रश्नों से बौखला कर मैंने 
जवाब दिया---”नही जानती कुछ भी,कोई बात नही 
करता आपके बारे में…., कम से कम मैंने तो नही सुनी।” 
यह कह कर उसको  शान्त‎ कराना चाहा मगर मुझे ऊन के धागों और सिलाईयों के पीछे उलझे चेहरे की  उलझन 
और बैचेनी साफ दिखाई‎ दे रही थी।
                    जहाँ तक मैं‎ उसके बारे में‎ जानती थी‎ वो 
यही था कि अपने दूर के रिश्तेदार की हवेली में रहती है 
और पास ही कहीं ग्रामीण‎ शाखा‎ बैंक में नौकरी करती है । हवेली के मालिक‎ पूर्वोतर भारत के किसी शहर में‎ रहते हैं, हवेली की देखभाल‎ पुश्तैनी नौकर के भरोसे थी लेकिन ‎
किसी संबंधी के हाथों‎ जायदाद की देखरेख हो इससे बढ़िया और क्या हो सकता है सो सहर्ष हवेली के दो कमरे उसके लिए खोल  दिए‎। कुछ‎ ही महिनों में ही उसके कड़े और 
शक्की व्यवहार‎ से तंग आ कर नौकर ने मालिकों से  कार्य‎ करने में असमर्थता जता कर  मुक्ति‎ पाई‎ और परिवार
 सहित अपने गाँव‎ की शरण ली। उसके बाद यह हवेली 
की केयर-टेकर पदस्थापित हुई। पूरे घटना‎क्रम का पता
 चलने पर मुझे लगा था कैसे रहेगी वह इतनी बड़ी हवेली 
में‎ अकेली। दोपहर में उस गली से गुजरो तो डर लगता है, 
पूरी गली सूनी और उस पर चार-पाँच खण्डहरनुमा हवेलियाँ जो “बीस साल बाद” फिल्म के रहस्यमयी वातावरण‎ की 
याद दिलाती है। लेकिन‎ वह जमी रही लगभग दस वर्षों
‎ तक देखा उसे यूं ही अकेले‎ रहते और काम पर जाते, 
माता-पिता, भाई-बहन…,किसी को भी कभी‎ आते रहते 
नही। कभी कभी‎ बड़ी सी V.I.P सूटकेस उठाये बस-स्टैण्ड 
की तरफ‎ जाती मिलती तो मैं समझ‎ जाती अपने घर जा 
रही है। मुझे ना जाने क्यों उसके रुखे और कड़वे स्वभाव 
का कारण उसका अकेलापन लगा अन्यथा वह पढ़ी लिखी स्वावलम्बी महिला‎ थी जो अपनी मान्यता‎ओं और वर्जनाओं के साथ जीने की आदी थी । अपने सन्दर्भ‎ में मौन और
 निकट संबंधियों से दूर मानो सारी दुनिया‎ से नाराज। 
 जब भी मैं उससे मिलती एक “हैलो” का जुमला मेरी और उछाल वह कुशलक्षेम पूछती मगर जैसे ही मैं आत्मीयता जताने आगे बढ़ती वह अनजान बन व्यस्त‎ होने का बहाना जता आगे बढ़ जाती ।
           
     अपने घर की तरफ‎ जाते मैं सोच रही  थी ---हफ्ते भर हूँ यहाँ , किसी दिन उसके मन की थाह लूं ; उसे कहूँ ---’मानव जीवन अनमोल है और बहुत सारे  उद्देश्य है जीवन के…., 
नष्ट‎ होने के बाद कुछ भी तो शेष नही। मौन क्यों हो ? 
चुप्पी की चादर उतार फेंको। कुछ‎ तो बोलो....., 
"कब बोलोगी।"
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Thursday, April 8, 2021

एक-दो दिन...

दोपहर में घर के  कामों में उलझी थी वीणा कि मोबाइल

की रिंग ने ध्यान अपनी ओर खींच

 लिया । जैसे ही कॉल अटैंड की उधर से बिना सम्बोधन के

परिचित सी साधिकार आवाज

 आई--'कब आओगी.. दस बरस के साथ को 

बस ऐसे ही भुला दिया ? पाँच बरस हो गए तुम्हें देखे.. कल

सपने में दिखी थी तुम..कभी मिलने

   को मन नहीं करता ?'

उस लरजती आवाज से वीणा के मन का कोई 

कोना भीग सा गया और भरे गले से कहा --'आऊँगी

ना..मन मेरा भी करता है । आप सब तो व्यस्त रहते

हो..आऊँगी जल्दी ही.. वक्त निकाल कर ।' 

  'पक्का ना .., बहाना नहीं । मैं छुट्टी ले लूंगी एक-दो

दिन की ।' उधर से व्यस्त सी आवाज आई । वीणा ने

भावनाओं के बाँध पर हँसी का मजबूत पुल बाँधते हुए

पूछा - "सिर्फ एक-दो दिन ?" 

'फिर ऐसा करो कोई लम्बा वीकेंड देख लो' - उधर से व्यस्त

भाव से कहा गया और इधर-उधर की कुशल-क्षेम पूछने

के बाद जल्दी  मिलने के वादे की औपचारिकता के

साथ विदा हुई।  वीणा फोन टेबल पर रखते

 हुए सोच रही थी - "लगभग 1800 किमी की दूरी ,

दस बरस का नेह और पाँच बरस के बिछोह के हिस्से में

केवल एक- दो दिन...।"


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