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Sunday, August 30, 2020

"बरफी"【समापन किश्त】

लगभग महिने भर बाद भुआ ने एक दिन अचानक आकर कहा -’पाँच-सात दिन के लिए गाँव जाना है  ,कुछ पैसे चाहिए छुट्टी के साथ ; अगले महिने पगार से कटा लेंगी।’
इस घटना के दस दिन बाद उनके लौटने पर जो बातें मैंने जानी उन्हें सुनकर मेरा मन उनके प्रति आदर से भर उठा वहीं उनकी आँखों की गहराई और सूनेपन का राज भी समझ में आ गया। बरफी भुआ एक भले घर से ताल्लुक रखती थी उनके पिता और पति दोनों की अपने-अपने गाँवों में अच्छी जमीनें थी। शादी के बाद दुर्भाग्यवश उन्हें कोई सन्तान नही हुई और देवरानी-जेठानी से बच्चा गोद मांगने पर ताना मिला -  “काठ के बच्चे बनवा कर खिला लो।” उस ताने को सुनने के बाद बरफी भुआ ने कुल्हाड़ी पर पैर नही रखा बल्कि कुल्हाड़ी उठाकर पूरी मजबूती के साथ अपने पैरों पर दे मारी। पति के लिए दुल्हन लाई और दोनों से अपने लिए एक बच्चा मांगा मगर नसीब में सुख होता तो अपना ही न हो जाता। बेटे की जगह रोजाना की कलह और अपमान झोली भर-भर के मिलने लगा। पीहर में माता-पिता का निधन हो चुका था ,बहन-भाइयों की अपनी-अपनी गृहस्थी थी ऐसे में कौन उनकी पीड़ा सुनता। पति के देहान्त के बाद आधी रात पति के बेटों और पत्नी द्वारा अपमानित होकर भुआ ने घर छोड़ दिया और एक अनजान कस्बे में आकर मेहनत मजदूरी करने को मजबूर हुई। उस अनजान से गाँव के अपरिचित से मोहल्ले के सभी घरों के बड़े और बच्चों के बीच अपने आत्मीय स्वभाव से कारण वह बरफी भुआ कब बन गई
उन्हें भी पता नही चला।
काल का पहिया यूं ही धीरे-धीरे सरक रहा था कि एक दिन उनके पति के बड़े पुत्र की विधवा गोद में बच्चा लिए उनके सामने आ खड़ी हुई अभागिन का नाम देकर घरवालों ने उसे ठुकरा दिया था । उसकी व्यथा से द्रवित भुआ को अपने प्रति हुआ अन्याय भी याद हो आया। सन्तान को तरसती दुखियारी माँ ने उस बालक को अपना पोता मानते हुए उसके हक के लिए  मुकदमा दायर कर दिया अपने पति के बेटों और पत्नी पर। पूरी बात सुनने के बाद मैंंने भारी मन से कहा - भुआ आपका समय तो आपने यूं ही निकाल दिया अब ..., मेरी बात काटते हुए उन्होने कहा - ‘उस महारानी को संतान के  लिए लाई थी ,खुद को तीन हुए तो दूसरों की बेक़दरी करेगी। मैं समझ लूंगी जो नही रहा वो मेरा था। मैं समझ गई भुआ का पुराना दबा रोष, संतान मोह और स्वाभिमान एक साथ जाग उठे हैं। और अब उन्हें रोकने वाला कोई हो ही नहीं सकता ।  महिने  दर महिने बीतते रहे वो जब भी छुट्टी मांगती मैं समझ जाती कि केस की सुनवाई की तारीख पर जा रही होंगी । धीरे-धीरे मोहल्ले वालों ने आलोचना शुरु कर दी - ‘बरफी का दिमाग खराब हो  गया अब इस उम्र में क्या करेगी जमीन-जायदाद का।' वो जब भी ऐसी बातें सुनती बैचेन हो जाती, काम करते समय स्वभाव में उतावलापन देखते ही मैं समझ जाती कि आज कुछ हुआ है।
      हमेशा की तरह इस बार भुआ गाँव का नाम ले कर गई और वापस आई तो चेहरे की झुर्रियाँ और माथे की सलवटें अधिक ही गहरा गईं थीं और आँखों का सूनापन भी बढ़ गया था । डरते-डरते पूछा तो जवाब कुछ यूं  मिला - 'वकील कहता है- घर की लड़ाई है मिल-बैठ कर सुलझा लो और इन लोगों को माफ कर दो ।' वो महारानी सामने खड़ी थी…, मैंंने भी कह दिया सब के बीच - ' तीस बरस अपने सिर पर घास के गट्ठर और गाय-भैंसों का गोबर ढोया है इस महारानी से तीस बरस नही तीन महिने ही सही यह काम करवा दो मैं माफ कर दूंगी।' बाहर आकर काले कोट वाला बोला -' तेरा दिमाग खराब है बरफी!' सुना दिया उसको भी - 'वही तो खराब है नही तो मैं भी तुम्हारी तरह काला कोट पहनती या इसकी तरह महारानी बन के रहती।'
       कुछ महिनों बाद फिर उन्होने गाँव जाने की बात कही। मैं भी उनका चेहरा देखते ही समझ गई कि केस की तारीख पर जा रही है। पूछने पर बीड़ी पीते हुए हाँ में सिर हिलाया। अब की बार गई भुआ वापस नही लौटी, कुछ महिनों बाद मेरा तबादला कहीं और हो गया। दो-तीन बार काम वश उधर जाना हुआ तो वहाँ भी पहुंची जहाँ वे रहती थीं । उजाड़ खण्डहर घर भुआ के चेहरे की झुर्रियों और सूनी आँखों जैसा ही दिख रहा था उस पर जंग खाया ताला उनके न लौटने की गवाही दे रहा था । आस-पास के लोगों से पूछने पर जवाब मिला - पता नही गाँव गई थी वापस नही लौटी, उम्र भी हो ही रही थी……, कहीं मर-खप गई होगी ।
 मन में उनकी व्यथा की गठरी लिए मैं वापस लौट आई । अक्सर मुझे बरफी भुआ की याद आ ही जाती है और उनके दुखों और कड़वाहटों को याद कर के मन भी उदास हो जाता है।

                                ***  
                                                     【 समाप्त 】

11 comments:

  1. यथार्थ का चित्रण करती हृदयस्पर्शी कहानी, सत्य तो यही है मीना जी कि हमेशा से औरत ही औरत की दुश्मन रही है, त्याग की देवी कहीं जाने वाली औरत ही स्वार्थवश दुसरी औरत की पीड़ा को नहीं समझ पाती, दिल को छू लेने वाला संस्मरण,सादर नमस्कार आपको

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    1. सारगर्भित मर्मस्पर्शी समीक्षात्मक प्रतिक्रिया से लेखन के मर्म को सार्थकता मिली । सादर नमस्कार सहित सहृदय आभार कामिनी जी ।

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  3. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (31अगस्त 2020) को 'राब्ता का ज़ाबता कहाँ हुआ निहाँ' (चर्चा अंक 3809) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    --
    -रवीन्द्र सिंह यादव


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    1. संस्मरण को कल की चर्चा मे सम्मिलित करने के लिए सादर आभार आ.रविंद्र सिंह जी ।

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    1. उत्साहवर्धन के लिए सादर आभार सर.

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  5. बेहद मर्मस्पर्शी कहानी

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    1. उत्साहवर्धन के लिए सस्नेह आभार सखी ।

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  6. बहुत ही हृदयस्पर्शी कहानी... सचमुच वरफी भुआ
    का जीवन बहुत ही कष्टप्रद रहा ...स्वयं हर दुख झेलने वाली भुआ जब दूसरों पर आयी तो कानून भी समझ गयी...।प्रभावशाली लेखन शैली में लिखी ये कहानी दिल को छू लेने वाली है।

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    1. हृदयस्पर्शी समीक्षात्मक प्रतिक्रिया के लिए सस्नेह आभार सुधा जी ।

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