अक्सर वे व्यस्तता की दहलीज़ पार कर वक़्त को छलावा देकर फोन पर अपने -अपने दुख- सुख साझा करती हैं और ऐसा करते-करते भूल जाया करती हैं वक़्त को । उस वक़्त.., वक्त ही कहाँ होता है उनके पास कि वे वक्त को याद करें । कभी-कभी तो अवसर मिलता है उन्हें अपने आपको रिक्तता की सरहद पर खड़े हो कर खुद को पहचानने के लिए ।
कितनी ही स्मृतियों की गठरियाँ .., स्मृतियों की अटारियों में से धूल और जालों के बीच से निकाल कर वे उन्हें खोलती हैं और कड़वे-मीठे पलों को आज और कल के साथ जीते हुए कभी बेलौस हँसती हैं तो कभी स्वर अवरुद्ध भी कर बैठती हैं । अपनेपन की संजीवनी को आँचल में समेट कर दुबारा मिलने का वादा करके लौट जाती हैं अपनी -अपनी सीमाओं में,जहाँ उनका अपना-अपना संसार हैं ।कमाल की बात यह है कि सब कुछ भरा-भरा होने के बावजूद भी रिक्तता का खाली कोना कहीं शेष रह जाता है ।जो वे गाहे-बगाहे इस फ़ुर्सत नाम की दहलीज़ पर आकर भरती हैं ।
***