बहुत दिनों के बाद आज समय मिला है ..आलमारी ठीक करने का । कितनी ही अनर्गल चीजें रख देती हूँ इसमें और फिर साफ करते करते सलीके से ना जाने कितना समय लग जाता है । कितनी स्मृतियाँ जुड़ी होती है हर चीज के साथ ..और मन है कि डूबता चला जाता है उन गलियारों में और जब काम पूरा होता है तो सूर्यदेव अस्ताचलगामी हो जाते हैं । ऐसे समय में अक्सर बचपन का घर और माँ का करीने से जँचा कमरा घूम जाता है नज़रों के आगे । इस आकर्षण का कारण माँ के सलीकेदार होने की प्रंशसा का होना मुख्य है जो घर के सदस्यों के अतिरिक्त रिश्तेदारों से भी सुनने को मिलती थी । माँ के कमरे में दीवारों में बनी आलमारियों में एक आलमारी पर सदा ताला लगा देखती थी हमेशा और उसकी चाबी का गुच्छा माँ की साड़ी के छोर से बंधा हुआ…,अगर पल्लू के छोर पर नहीं तो पक्का रसोईघर के सामान के बीच रखा ,जिसे वे प्रायः भूल जाया करती थीं काम करते हुए । और उसे ढूंढने का श्रेय मेरे हिस्से में सबसे अधिक आता था । माँ जब भी आलमारी खोलती सूटकेसों के साथ करीने से रखी पुरानी बेडशीट पर लोहे की प्रिटेंड संदूक को जरूर अपलक निहारती दिखती और मैं उनके गले में हाथ डाल कर झूलती हुई पूछती --'तुम्हारी तिजोरी है माँ ?' स्नेह में डूबा लरजती आवाज में उनका जवाब होता -- हाँ.. तेरी नानी की भेंट है यह ।और मैं उलझा देती उन्हें बहुत सारे प्रश्नों में..जिनकी उलझन से बचने के लिए वे सदा ही मुझे-- जा पढ़ाई कर.. कह कर चुप करा देती ।
अपने घर में जब भी फुर्सत से आलमारियां ठीक
करती हूँ ...माँ की आलमारी और प्रिटेंड सा संदूक याद आ जाता
है । माँ का संदूक को सावधानी से रखना , करीने से खोलना , कपडों की तहों में चिट्ठियाँ रखना ...कुछ ननिहाल से मिली भेंटों को अपलक तांकना ; बालमन को तो समझ नहीं आता था पर अब समझ आता है । संदूक का छोर पकड़ती माँ मानो हाथ पकड़ती थी अपनी माँ का .., उसमें रखे सामान को सहेजती माँ का बालमन भी अपने बचपन के गलियारों में विचरण करता ही होगा मगर उनके एकान्तिक अहसासों की एकाग्रता को भंग करती कभी मैं तो कभी भाई -बहन उनको उनके बचपन से बड़प्पन के संसार में ले आया करते थे मानो कह रहे हो -- "तुम 'लाइट हाउस' हो हमारा … कहाँ जा रही हो माँ?" आज माँ नहीं हैं.. मैं आलमारी ठीक करते करते मन से माँ की तरह भटक रही हूँ यादों की उन विथियों में … जहाँ माँ का संदूक है ..और अब है भी या नहीं पता नही...जिसमें ना जाने कितने अनकहे अहसास बंद थे माँ के करीने से सजाये हुए .. उन्हीं को याद करती मैं वापस लौट आती हूँ अपनी आलमारी के पास बिखरे यादों के संदूक के साथ ।
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आपकी भावनाओं को समझा जा सकता है, अनुभव किया जा सकता है। ज़िन्दगी यादों के ज़खीरे के सिवा है ही क्या ? जो कुछ एक बार हो जाता है, ताज़िन्दगी उसकी यादें ही तो साथ चलती हैं। संदूक हो या तसवीरों का एलबम, गुज़रे वक़्त की यादों की ही तो निशानी हैं।
ReplyDeleteसृजन को सार्थक करती अनमोल प्रतिक्रिया के लिए हृदयतल से आभारी हूँ जितेन्द्र जी ! हार्दिक धन्यवाद सहित सादर वन्दे !
Deleteये रिश्तों की डोर माँ बेटी और नानी बड़ी मज़बूती से यादों के ताने बाने से बंधी होती हैं बहुत ह्रदय स्पर्शी
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ReplyDeleteबहुत सुंदर और ह्रदय स्पर्शी
ReplyDeleteआपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया ने लेखनी का मान बढ़ाया । हार्दिक आभार सहित सादर वन्दे मधुलिका जी!
ReplyDeleteहमोर साथ तो अक्सर होता है ऐसा...आपके शब्द दोहराए जाते हैं कि ..;आज माँ नहीं हैं.. मैं आलमारी ठीक करते करते मन से माँ की तरह भटक रही हूँ यादों की उन विथियों में
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार एवं धन्यवाद अलकनंदा जी स्नेहिल उपस्थिति हेतु 🙏
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteआपकी प्रतिक्रिया से सृजन को मान मिला हार्दिक आभार एवं धन्यवाद सर ! सादर वन्दे !
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