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Saturday, September 19, 2020

"अन्तर"

 स्कूल से आकर अपना बैग पटकते हुए दिशा ने शिकायती लहज़े में माँ से कहा - “तुम मुझ में और भाई में भेद-भाव रखती हो , उसको शाम तक भी घर से बाहर आने-जाने की छूट और मुझे नही?” माँ ने निर्लिप्त भाव से उसकी ओर देखते हुए पूछा-”आज यह सब कहाँ से भर लाई कूड़ा-कबाड़ दिमाग में।’ 

              “ आज स्कूल में “समाज में लिंगभेद’ पर स्पीच थी , उसमें यह बात भी थी कि लड़कियों को लड़कों से कम समझा जाता है । लड़कों को ज्यादा सुविधाएँ मिलती हैं। और यह बात सच भी है मुझे बाहर कहाँ खेलने जाने देती हो तुम ?"

                                                      माँ ने बड़ी सहजता से कहा-”भाई के हर महिने बाल कटाती हूँ , तेरे बाल लम्बे हैं ,भरी दोपहरी या शाम को गलियाँ सुनसान होती हैं ऐसे समय-कुसमय में बुरी आत्माएँ घूमती हैं इसलिए लड़कियों को बाहर जाने से रोका जाता है । बाकी तू जानती है मैंने खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने में कभी भेद नही किया तुम भाई-बहनों में। "बाल-सुलभ जिद्द वही की वही रुक गई क्योंकि दिशा को भूतों-प्रेतों के नाम से ही डर लगता था यूं भी लाईट जाते ही वह उल्टा-सीधा जैसा भी याद था हनुमान-चालीसा बुदबुदाना शुरु कर देती थी।

                      दिशा सोच रही थी कि कुछ हद तक             माँ की बात सही भी थी माँ को उसने अपने परीक्षा-परिणाम पर सदा खुश होते ही देखा। छोटे भाई और बहन को बड़े भइया की बजाय अच्छे से वह रखेगी इस बात का विश्वास था उन्हें। कई बार वाद-विवाद तो कई बार निबन्ध प्रतियोगिताओं में दहेज-प्रथा और लड़के-लड़की के मध्य असमानता जैसे विषय उठ जाया करते थे । नारी जाति के प्रति उपेक्षित व्यवहार की चर्चा कक्षा-कक्षों में भी होती थी और वह स्कूल से आते ही राम चरित मानस या गीता-पाठ करती माँ के पास अपना रोष व्यक्त करने पहुँच जाती मानो उसकी जिद्द है कि वह माँ को साबित कर दिखाएगी कि अन्तर है समाज में नारी और पुरुष वर्ग में ।

                      माँ शान्ति से बात सुनती और समझाती कि अवसर की समानता लड़कियों पर भी निर्भर है।वैदिक काल में मैत्रेयी,अपाला, गार्गी और विश्ववारा जैसी विदुषियाँ ऋषियों के समकक्ष थीं। माँ दुर्गा,लक्ष्मी और सरस्वती भी स्त्रियाँ ही हैं ना….,और तू ये गाती फिरती है -”खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।” यह भी तो लड़की ही थी ना ।"

कई बार वह उनके सामने हथियार डाल देती तो कई बार अपनी बुध्दि अनुसार नए तर्क खोजने लगती। मगर मकसद एक ही रहता कि माँ से अपनी बात मनवा कर छोड़ेगी ।

               आज दिशा बड़ी हो गई है , माँ भी नही रही। घर - बाहर लड़कियों को देखती है , कुछ बड़ी हैं  तो कुछ बड़ी हो रही हैं । नौकरियाँ कर रही हैं स्वावलंबी भी हैं मगर सवाल आज भी वही हैं। जिद्द भी वही है कि समाज में लिंगभेद असमानता है । लड़कियों के लिए विकास के अवसर कम है वगैरा-वगैरा ।

     ऐसे समय में दिशा को माँ के समझाने का ढंग याद आ जाता है। असमय निर्जन स्थानों पर होने वाली महिलाओं के साथ दुर्घटनाएँ..  ,अक्सर माँ के द्वारा समय- कुसमय बाहर जाने से रोकने के तर्कों की याद  दिलाती है। 

               आज की भागती-दौड़ती दुनियाँ में शायद वक्त ही नही है किसी के पास बालमन की जिज्ञासाओं को शान्त करने का।

                        “Don’t argue . चुप्प कर , ये कौन सा project है ?अपनी tuition-teacher.से पूछ लेना ।" जैसे जुमले व्यस्त भाव से सुनने को मिल जाते हैं। सवाल आज भी वही हैं बस जवाब देने के ढंग में अन्तर आ गया है शायद ।


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Sunday, September 6, 2020

"5 सितम्बर"

 कल-कल बहते झरने सी हँसी थी उसकी । भूमिका अक्सर स्कूल के गेट में घुसती तो वो हँस कर गुड मार्निंग कह अपनी हथेली भूमिका की तरफ फैला देती । स्कूल में किसने बनाया होगा यह नियम पता नहीं लेकिन ग्यारहवीं कक्षा की लड़कियां नियम से स्कूल आने वाली शिक्षिकाओं की स्कूटी या साइकिल गेट से लेकर साइकिल स्टैंड पर खड़ी कर के आती ..लड़कियों की ड्रेस साफ-सुथरी है ना..लेट आने वाली लड़कियों को लाइन में खड़ा करना सब उन्हीं के जिम्मे होता ।अगले वर्ष ड्यूटी अगली ग्यारहवीं की होती ।

      भूमिका के भुलक्कड़ स्वभाव में था दिनांक भूल जाना..वह चॉक उठा कर बोर्ड की तरफ मुड़ते हुए पूछती - डेट ? उसकी क्लास में से शरारती सुर उठता ..हमारे रिवीजन.. होमवर्क की डेट कभी नहीं भूलते आप ? भूमिका मुस्कुरा भर देती । एक दिन वह भूमिका की क्लासमेट नेहा के साथ सकुचाई सी उसके घर के गेट पर थी । नेहा से बातचीत में पता चला वो उसकी भांजी

 है । राजनीति  विज्ञान में मदद चाहिए उसे यदि वह पढ़ा सके … अपने सिद्धांतों के कारण भूमिका ने उसे ट्यूशन की हामी तो नही भरी लेकिन वादा किया कि वो जब भी परेशानी हो स्कूल के अतिरिक्त घर आकर पढ़ सकती

 है । अपने मिलनसार स्वभाव के कारण धीरे -धीरे वह भूमिका के परिवार के सदस्य जैसी बन गई ।  सबके जन्मदिन पर हंगामा मचाने वाली लड़की  का जन्मदिन अप्रैल में आता है उसने ठोक-पीट कर भूमिका को रटा दिया था । जन्मदिन वाले दिन उसने आँखों में अनोखी चमक के साथ भूमिका मैम से स्कूटी की चाबी ली..स्टैंड पर खड़ी की । क्लास में भी चॉक-डस्टर ,बुक निकाल कर मेज़ पर रखी ।भुलक्कड़ मैम को 'डेट" भी बताई ।

                चार-पाँच दिन के अन्तराल पर वह घर आई तो  उदास सी थी । उदासी का कारण पूछने पर जवाब

भूमिका की  मम्मी ने दिया - 'तूने उसको बर्थडे तक विश नहीं किया और अब पूछ रही है क्या हुआ ?' भूमिका ने

सिर पकड़ लिया अपना..पता नहीं अंकों के साथ उसका

क्या आकड़ा था ..हर बात याद रखने वाली भूमिका कभी भी डेट , फोन नम्बर याद नहीं रख पाती थी । भूमिका को सिर पकड़े देख उसने मासूमियत से हँसते हुए कहा - 'कोई बात नहीं आंटी जी हम इनको डेट याद रखना भी सीखा देंगे ।'

            कॉलेज में जाने के बाद भी उसने घर आना नहीं छोड़ा यदि कुछ दिन नहीं आती तो वह समझ जाती अपने घर गई होगी पेरेंट्स के पास । एक बार की यूं ही गई वह नहीं लौटी ...नेहा से पता चला रोड एक्सीडेंट में उसने 5सितम्बर को आखिरी सांस ली ।

                      हर 5 सितम्बर को भूमिका के कानों में एक आवाज़ गूंजती है - 'कोई बात नहीं आंटी जी हम इनको डेट याद रखना भी सीखा देंगे ।' 


                                     ***

Wednesday, September 2, 2020

क्षमा बड़न को चाहिए...

सुबह और शाम खुली हवा में घूमना बचपन से ही बहुत प्रिय रहा है मुझे । इसका कारण शायद पहले खुले आंगन‎ और खुली‎ छत वाले घर में रहना रहा होगा । शहर में आ कर अपना यह शौक  मैं‎ अपने आवासीय कैंपस के 'पाथ वे' में घूम‎ कर पूरा कर लेती हूँ । आज कल वैश्विक महामारी के चलते घूमना बंद है मगर कमरे की खिड़की से दिखते 'पाथ वे' को देखते समय एक दिन की घटना का स्मरण हो आता है । कैंपस में बने बॉस्केटबॉल ,फुटबॉल या टेबल टेनिस कोर्ट में शाम के समय अक्सर‎ बच्चों की टोलियां मिल जाती थी क्योंकि शाम के बाद तो वहाँ उनके अभिभावकों का आधिपत्य होता था अतः शाम का समय उनके शोर-शराबे से गुलज़ार रहता । उस दिन बच्चों‎ के ग्रुप के बीच एक औरत खड़ी मोबाइल पर कुछ करती दिखाई‎ दी, दूसरे राउंड में भी उसे वहीं‎ खड़े देखकर कुछ अजीब‎ सा लगा कि क्यों बच्चों‎ का रास्ता‎ रोके खड़ी है दूर‎ खड़ी होकर भी बात कर ही सकती है मगर कैंपस में रहने वालों के लिए सार्वजनिक‎ जगह जो ठहरी और उस पर किशोरवय  के बच्चे खेल रहे हो तो किसी का भी उस जगह का उपयोग करने का समान हक है यहाँ‎ वर्जना अस्वीकार्य सी है । अगले राउंड तक माहौल अन्त्याक्षरी जैसा हो गया बच्चों‎ का झुण्ड एक तरफ और महिला दूसरी तरफ मगर जो कानों ने सुना वह अप्रत्याशित था , बच्चे‎ ---  “But aunty , we are  seniors .और महिला बराबर टक्कर दे रही ही थी----  O…, excellent . listen to me you are also kids. गर्मा गर्म बहस सुन कर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँची  कि महिला का बेटा जो उन बच्चों‎ से बेहद छोटा था बास्केट बॉल खेलना चाह रहा था  जिसके चलते  बड़े बच्चों‎ को परेशानी हो रही थी‎ और समस्या यह थी कि दोनों पक्षों‎ में से  कोई भी पीछे हटने को कोई तैयार नही था । बच्चों का महिला से इस तरह बहस करना सही भी नहीं लग रहा था ।
 घर की तरफ लौटती मैं सोच रही थी कि अधिकार भाव के लिए सजगता कहाँ अधिक‎ थी । Morality के मानदण्ड पर तो दोनों पक्ष ही गलत थे ऐसे में चलते चलते रहीम जी का दोहा ----छमा बड़न को चाहिए ,छोटन को उत्पात …याद आ गया और उसी के साथ बच्चों‎ का पलड़ा भारी हो गया ।

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