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Monday, November 16, 2020

"यादें"【हाइबन】

【 चित्र गूगल से साभार】


कई बार कुछ लम्हें स्थायी रूप से बैठ जाते हैं

 मन के किसी कोने में । सोचती हूँ मन क्या है - हृदय...

जिसकी धड़कन ही जीवन है । बचपन में पढ़ा था कि हर

मनुष्य का हृदय उसकी बंद मुट्ठी जितना होता है । इस छोटे से

अंग में सागर सी गहराई और आसमान सी असीमता है यह

बात बड़े होने के बाद समझ आई ।   

असम का एक मझोला शहर बरपेटा रोड ..वहीं से मुँह

अंधेरे गाड़ी में बैठते सुना कि सुबह तक पहुंच जाएंगे गुवाहाटी ।  कार की खिड़की से नीम अंधेरे में भागते पेड़ों को देखते

देखते कब नींद आई पता ही नहीं चला । आँख खुली तो

लगा पुल से गुजर रहे हैं --

 "उगता सूरज... ब्रह्मपुत्र का सिंदूरी जल और नदी में

बहती छोटी-मझोली जाल लादे नावें और साथ

ही स्टीमर्स की घर्र-घर्र । "

इस अनूठे दृश्य को देख कर मैं मंत्रमुग्ध सी अपलक

अपने लिए निन्तात अजनबी से दृश्य को निहारने में इतनी

मगन हुई कि वह दृश्य  कस कर बाँध लाई अपनी

मन मंजूषा में । आज भी यदा-कदा बंद दृग  पटलों में

वह दृश्य जीवन्त हो उठता है और महसूस होता है कि

मैं वहीं तो हूँ ब्रह्मपुत्र के पुल पर.. और जैसे ही आँखें

खोलूंगी अगले ही पल वहीं दृश्य साकार हो उठेगा --

 

भोर लालिमा~

ब्रह्मपुत्र में जाल

फेंकते मांझी।

***

Thursday, November 5, 2020

"इस रात की सुबह.."

एक अजनबी सा शहर और उसकी अपरिचित सी इमारत जो चार वर्षो में अजनबी से परिचित बन गई। उसमें मार्निंग वॉक के समय "पाथ वे" में खड़े पेड़ों की प्रजातियों के बारे में सोचना बड़ा भला लगता था मुझे । नये शहर में इन्सानों से परिचय सीमित लेकिन पेड़-पौधों से मेरी दोस्ती प्रगाढ़ होती चली गई । किस वनस्पति में कौन से गुण हैं हम इन्सानों की तरह इनका भी समाज है और रहने वालों के व्यवहार में भी सज्जनता, आवेश, कड़वाहट सभी गुण समाये हैं इसी सोच के साथ 

घूमते हुए पैंतालीस मिनिट कब पूरे हुए पता ही

 नहीं चलता ।

  चलते - चलते वनस्पति जगत के बारे में सोचते हुए मैं खुद को भूल जाती ।  किस आम की डाल कब आम्र मंजरियों से लदी है कौन से पौधे में कब फूल आते हैं और कब नहीं भलीभाँति जानने लगी थी

 मैं । आमों की  झुकी शाखाओं पर  मेरे अतिरिक्त बच्चों की पैनी नजर भी रहती कि वे सब से नजर बचा कर कब कच्चे आमों को तोड़ने का श्री गणेश करें ।

बच्चों की टोलियाँ चाहे कहीं की भी हो आदतों से लगभग समान गुण- धर्म वाली होती है "Don't pluck the plants" के टैग लगे होने के बावजूद बच्चे कब आम तोड़ कर भाग जाते  सिक्योरिटी गार्डस् को भी पता नहीं चलता । बाद में बिल्डिंग के रख-रखाव का ध्यान रखने वाले अपने सीनियर्स की बेचारों को नाराजगी झेलनी पड़ती इस बार की सीजन में उनको भी आराम रहा होगा । वैसे बच्चों की पहुंच से दूर कहीं कहीं नारियल जरूर पूरी शान से अकड़े खड़े दिखते मानो बच्चों को चिढा़ रहे हो कि दम है तो हमें तोड़ के दिखाओ । लेकिन नारियल अधिकतर सिक्योरिटी गार्डस् ही तोड़ते दिखते ।

सोचती हूँ जहाँ बच्चोँ की प्रंशसा का कोना बचे तो वो भी होनी चाहिए.. फूल पत्तियों को तोड़ना उनकी आदतों में कहीं भी शामिल नहीं होता। यहाँ जगह-जगह लगी सूचना का ध्यान वे खेलते समय भी रखते हैं ।

 पेड़ -पौधों को देखते और घूमते हुए मेरी कब हरसिंगार, गुलमोहर और अमलतास से  दोस्ती हुई यह तो ठीक से याद नहीं मगर कोरोना काल में इनको ना देख पाने की कमी को मैं एक शिद्दत से महसूस करती हूँ । 

कई बार इस विषय पर चर्चा भी होती है कि बाहर बिना रूकावट के घूमने की कमी को कौन सब से अधिक महसूस करता है तो वहाँ मैं सब से पहले मुखर होती हूँ कमी महसूस होने की खातिर..यूं तो आदत हो गई है सात महिनों से घर पर ही रहने की मगर बहुत सारे पौधे और फूल जिनके नाम भी मैं नहीं जानती सोचती हूँ कि सूर्य की लालिमा में डूबे याद तो करते होंगे मुझे या फिर भूल गए होंगे । राह में बिछे हरसिंगार शायद राह तकते होंगे मेरी.. किसी फूल पर भूल कर भी भूल से पैर ना पड़ जाए मेरा इसका ध्यान रखती थी मैं । 

रोज कुछ फूल घर आते समय हथेलियों में करीने से भर लाना आदत में शुमार था कहीं न कहीं । कॉर्नर की टेबल का खाली कोना बरबस उनकी बहुत याद दिलाता है । 

अभी तक कोई ठोस कारगर इलाज कोरोना महामारी के लिए हुआ नहीं । समाचारों में विश्व के कुछ देशों में कोरोना की दूसरी लहर से पुनः लॉकडाउन जैसे फैसलों की सुनती हूँ । सामान्य गतिविधियों में लोगों की भीड़ और रैलियों के बारे में देखते - सुनते  मानव समुदाय की चिन्ता मन में लिए एक लम्बी गहरी सांस सकारात्मकता

 से भरती हूँ दिलोदिमाग में कि इस रात की सुबह कभी तो होगी ।

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【चित्र-गूगल से साभार】