Followers

Copyright

Copyright © 2023 "आहान"(https://aahan29.blogspot.com) .All rights reserved.

Thursday, November 5, 2020

"इस रात की सुबह.."

एक अजनबी सा शहर और उसकी अपरिचित सी इमारत जो चार वर्षो में अजनबी से परिचित बन गई। उसमें मार्निंग वॉक के समय "पाथ वे" में खड़े पेड़ों की प्रजातियों के बारे में सोचना बड़ा भला लगता था मुझे । नये शहर में इन्सानों से परिचय सीमित लेकिन पेड़-पौधों से मेरी दोस्ती प्रगाढ़ होती चली गई । किस वनस्पति में कौन से गुण हैं हम इन्सानों की तरह इनका भी समाज है और रहने वालों के व्यवहार में भी सज्जनता, आवेश, कड़वाहट सभी गुण समाये हैं इसी सोच के साथ 

घूमते हुए पैंतालीस मिनिट कब पूरे हुए पता ही

 नहीं चलता ।

  चलते - चलते वनस्पति जगत के बारे में सोचते हुए मैं खुद को भूल जाती ।  किस आम की डाल कब आम्र मंजरियों से लदी है कौन से पौधे में कब फूल आते हैं और कब नहीं भलीभाँति जानने लगी थी

 मैं । आमों की  झुकी शाखाओं पर  मेरे अतिरिक्त बच्चों की पैनी नजर भी रहती कि वे सब से नजर बचा कर कब कच्चे आमों को तोड़ने का श्री गणेश करें ।

बच्चों की टोलियाँ चाहे कहीं की भी हो आदतों से लगभग समान गुण- धर्म वाली होती है "Don't pluck the plants" के टैग लगे होने के बावजूद बच्चे कब आम तोड़ कर भाग जाते  सिक्योरिटी गार्डस् को भी पता नहीं चलता । बाद में बिल्डिंग के रख-रखाव का ध्यान रखने वाले अपने सीनियर्स की बेचारों को नाराजगी झेलनी पड़ती इस बार की सीजन में उनको भी आराम रहा होगा । वैसे बच्चों की पहुंच से दूर कहीं कहीं नारियल जरूर पूरी शान से अकड़े खड़े दिखते मानो बच्चों को चिढा़ रहे हो कि दम है तो हमें तोड़ के दिखाओ । लेकिन नारियल अधिकतर सिक्योरिटी गार्डस् ही तोड़ते दिखते ।

सोचती हूँ जहाँ बच्चोँ की प्रंशसा का कोना बचे तो वो भी होनी चाहिए.. फूल पत्तियों को तोड़ना उनकी आदतों में कहीं भी शामिल नहीं होता। यहाँ जगह-जगह लगी सूचना का ध्यान वे खेलते समय भी रखते हैं ।

 पेड़ -पौधों को देखते और घूमते हुए मेरी कब हरसिंगार, गुलमोहर और अमलतास से  दोस्ती हुई यह तो ठीक से याद नहीं मगर कोरोना काल में इनको ना देख पाने की कमी को मैं एक शिद्दत से महसूस करती हूँ । 

कई बार इस विषय पर चर्चा भी होती है कि बाहर बिना रूकावट के घूमने की कमी को कौन सब से अधिक महसूस करता है तो वहाँ मैं सब से पहले मुखर होती हूँ कमी महसूस होने की खातिर..यूं तो आदत हो गई है सात महिनों से घर पर ही रहने की मगर बहुत सारे पौधे और फूल जिनके नाम भी मैं नहीं जानती सोचती हूँ कि सूर्य की लालिमा में डूबे याद तो करते होंगे मुझे या फिर भूल गए होंगे । राह में बिछे हरसिंगार शायद राह तकते होंगे मेरी.. किसी फूल पर भूल कर भी भूल से पैर ना पड़ जाए मेरा इसका ध्यान रखती थी मैं । 

रोज कुछ फूल घर आते समय हथेलियों में करीने से भर लाना आदत में शुमार था कहीं न कहीं । कॉर्नर की टेबल का खाली कोना बरबस उनकी बहुत याद दिलाता है । 

अभी तक कोई ठोस कारगर इलाज कोरोना महामारी के लिए हुआ नहीं । समाचारों में विश्व के कुछ देशों में कोरोना की दूसरी लहर से पुनः लॉकडाउन जैसे फैसलों की सुनती हूँ । सामान्य गतिविधियों में लोगों की भीड़ और रैलियों के बारे में देखते - सुनते  मानव समुदाय की चिन्ता मन में लिए एक लम्बी गहरी सांस सकारात्मकता

 से भरती हूँ दिलोदिमाग में कि इस रात की सुबह कभी तो होगी ।

****

【चित्र-गूगल से साभार】

18 comments:

  1. कोरोना महामारी ने तो झकझोर के रख दिया। सबकी जिंदगी रुक सी गई। धीरे सब सब सही हो जाएगा जैसा की आपने लिखा "इस रात की सुबह कभी तो होगी"।
    बहुत बढ़िया। सकारात्मक लेख।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया से सृजन को सार्थकता मिली ।हृदयतल से बहुत बहुत आभार शिवम् जी ।

      Delete
  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ६ नवंबर २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

    ReplyDelete
    Replies
    1. सृजन को पांच लिकों का आनंद में साझा करने के लिए सहृदय आभार श्वेता ।

      Delete
  3. Replies
    1. उत्साहवर्धन हेतु बहुत बहुत आभार सर !

      Delete
  4. हर रात की सुबह होती है.. देखिए भारत की सुबह मैं आपके ब्लॉग पर हूँ लेकिन वास्तव में मैं जहाँ हूँ वहाँ सन्ध्या आने को है.. नियति अपनी चाल चल रही है तो हम अपने गति से चलें.. माया बोल रही थी,"जाने वाला ही जा रहा है तो हम क्यों कैद में रहें..!"

    ReplyDelete
  5. बहुत बहुत आभारी हूँ दी आपके समझाइश भरे नजरिए के साथ उत्साहवर्धन हेतु🙏 आपकी ऊर्जावान उपस्थिति और बातें सदैव सीखने को प्रेरित करती हैं । वाकई में माया का कथन आज की
    परिस्थितियों का सशक्त प्रतिनिधित्व करता है..सस्नेह ।

    ReplyDelete
  6. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०७-११-२०२०) को 'मन की वीथियां' (चर्चा अंक- ३८७८) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    अनीता सैनी

    ReplyDelete
    Replies
    1. चर्चा मंच पर मेरे सृजन को सम्मिलित करने के लिए आपका सस्नेह आभार अनीता ।

      Delete
  7. सुंदर प्रस्तुति

    ReplyDelete
    Replies
    1. उत्साहवर्धन हेतु बहुत बहुत आभार सर !

      Delete
  8. कोरोना काल में प्रकृति बिना किसी मानवीय दखलंदाजी के फल-फूल रही है, यही बात प्रकृति प्रेमियों की सुकून देती है. सार्थक लेखन !

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया से लेखन को सार्थकता मिली...असीम आभार ।

      Delete
  9. सुंदर सार्थक लेखन। कोरोना काल से ज़िन्दगी रुकी भी तो इसने हम जैसों को न जाने कितने वर्षों के बाद घर भेजने का बंदोबस्त भी किया है। पिछले छः महीने से गढ़वाल में अपने घर में हूँ। ऐसा 10 वीं के बाद कभी नहीं हुआ। कोरोना ठीक होगा इसकी उम्मीद करता हूँ लेकिन जानता हूँ तब शायद फिर वनवास काटना पड़े।

    ReplyDelete
    Replies
    1. समझ सकती हूँ इस वनवास को..घर से दूर रहने की कसक अभिभावकों जितनी ही घर से दूर रहते बच्चे भी महसूस करते हैं। शहर..पढ़ाई.. कैरियर.. ये जिम्मेदारियां जिन्दगी को अपनों से दूर और यन्त्रवत कर देती है । कोरोना काल के सकारात्मक पहलूओं में पर्यावरण और भावनात्मक संतुलन सुदृढ़ हुए हैं । जब तक work from home की सुविधा रहे अपना अनमोल समय परिवार के साथ बिताइए । आपका गढ़वाल बहुत सुन्दर है । आभार ..लेखन को सार्थकता मिली आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया द्वारा.

      Delete
  10. सही सोच , आशाएं बनी रहें !

    ReplyDelete
    Replies
    1. उत्साहवर्धन हेतु बहुत बहुत आभार सर !

      Delete