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Monday, December 28, 2020

"गिफ्ट"

 'इस बार जन्म दिन पर पूर्वी ने डॉगी ,फिश या पैरेट में से कुछ मांगा है गिफ्ट में ।" सुहानी ने चाय पीते-पीते राजीव से कहा ।

"ला देना..वह सुमित की तरह जिद्दी और झगड़ालू तो है नहीं.. तुम्हारा लाडला तो वैसे भी खेलता कम और झगड़ता अधिक है उसके साथ ।"

    राजीव ने लैपटॉप की स्क्रीन पर नज़र गड़ाए व्यस्त भाव से कहा ।

 बहुत देखभाल के बाद पूर्वी के लिए सुहानी ने एक तोता पसन्द किया और जन्म दिन पर 

 उसका गिफ्ट उसके सामने रख दिया । साथ ही सुमित को सख़्त हिदायत दी कि वह अपनी शरारतों से बाज आए और बहन और उसके तोते से छेड.-छाड़ न करे ।

        तोते का लोक प्रचलित नाम मिट्ठू रखा गया ।  

मिटठू के आने के बाद पूर्वी भाई की उपस्थिति भूल अपनी ही दुनिया में रम गई । मिटठू को मिर्च खिला कर..कभी हैल्लो.. तो कभी राम-राम बोलना सीखा कर वह बहुत खुश थी.., पढ़ाई के बाद सारा दिन पिंजरे में बंद तोते के आस-पास ही मंडराती रहती । घर में शांति और भाई-बहन के युद्ध-विराम से पति-पत्नी खुश थे ।

कुछ दिन बाद सुहानी ने महसूस किया कि मिट्ठू की मीठी बोली में कर्कशता घुल गई है । सारा दिन की उसकी टें...टें से वह परेशान हो उठी । 

"आज इस मिट्ठू की खबर लेती हूँ" मिट्ठू की चुभती आवाज से त्रस्त हो वह आवेग से उठी और आंगन में आ कर जो दृश्य देखा तो आँखें हैरत से फैल गई -- पिंजरे के पास बैठी पूर्वी बड़े आराम से मिट्ठू के पंखों में पेन की नोंक चुभा रही थी और मिटठू बैचेनी से चीख-चिल्ला रहा था ।

उसने एक चाँटा बेटी के गाल पर रसीद किया और छत पर ले जाकर पिंजरे का द्वार खोल दिया । पूर्वी का रोना सुन उसे गोद में उठा कर राजीव ने छत की सीढ़ियाँ उतरती सुहानी को कड़े स्वर में डॉटा- "बच्ची की खुशी नहीं सुहाई..क्या हुआ.. जो मिट्ठू आजकल टें..टें..कर रहा था । किस बात की सजा दे रही हो बच्ची को..इस तरह का रवैया अपने लाडले के साथ रखती तो कब का सुधर गया होता।"

"हाँ..गलती हो गई मुझसे इन दोनों को समझने में..भूल मैंने की है तो सुधारूंगी भी मैं ही ।" सोच में डूबी खाली पिंजरा डस्टबिन के पास रखती सुहानी ने जवाब दिया ।

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Sunday, December 13, 2020

"व्यवहारिकता"

अक्सर महत्वपूर्ण दस्तावेज या कोई प्रतियोगी परीक्षा का फॉर्म भरते हैं तो एक प्रश्न होता है -- “कोई शारीरिक‎ पहचान”‎ और हम ढूंढना शुरू कर देते हैं‎ माथे पर ,हाथों पर या घुटनों पर लगे चोट के निशान जो प्राय: सभी के मिल ही जाते हैं  । मैं भी ऐसी बातों से अलग नही हूँ बल्कि “बिना देखे चलती है ।” की उपाधि आज भी साथ लेकर ही चलती हूँ । जाहिर सी बात है चोटों के निशान भी ज्यादा ही लिए घूमती हूँ ऐसे में एक घटना अक्सर मेरी आँखों के सामने अतीत से निकल वर्तमान‎ में आ खड़ी होती है जो कभी हँसने को तो कभी इन्सान की सोच पर सोचने को मजबूर कर देती है।

                                           एक बार  किसी जरुरी काम से मैं घर से निकली.. सोचा बेटे के स्कूल से आने से पहले  काम पूरा करके घर आ जाऊँगी। आसमान में बादल थे मगर इतने घने भी नही कि सोचने पर मजबूर करें कि घर से निकलना चाहिए कि नही। मगर वह महिना सावन का ठहरा घर वापसी के दौरान रास्ते में ही झमाझम बारिश

 शुरू गई । सदा अच्छी लगने वाली बारिश उस दिन आनंददायक की जगह कष्टदायक लग रही थी । मुझे घर पहुँचने की जल्दी थी कि बेटा स्कूल से निकल गया तो पक्का भीग रहा होगा और इसी सोच में कदम रूके नही बल्कि तेजी में भागने

 की स्थिति में पहुँच गए  थोड़ी सी दूरी पर घर है पहुँच ही जाऊँगी इसी सोच के साथ । घर से थोड़ी  दूरी पर एक चौराहा था जहाँ ढलान भी था और बीच से क्रॉस करती  नाली भी। वहाँ बारिश

 के पानी का बहाव ज्यादा ही था। मैंने देखा वहाँ एक कोने में हाथों में थैले लिए तीन औरतें भीगती खड़ी हैं। मैं चलते हुए सोच  रही थी --’भीग तो गई अब क्यों खड़ी हैं‎ बेवकूफ कहीं की ।’ मेरी सोच को तेज झटका लगा - धड़ाम.. एक आवाज़ ..

और इसी आवाज के साथ मैं चारों खाने चित्त.. नाली में मेरा पैर अटक गया था ।

 मैं संभलकर खड़ी होने की कोशिश कर ही रही थी  

कि कानों में आवाज  गूंजी

--”ऐ …,जल्दी से आ जाओ! नाली यहाँ पर है।” 

और वे लगभग मेरे आसपास की जगह को फलांगती हुई आगे निकल गईं और अपने छीले हुए घुटने और हथेली के साथ लड़खड़ाती हुई‎  मैं अपने घर की ओर। बारिशों के दौर में सड़कों पर बहते पानी के वेग को देख कर अक्सर मैं उस घटना को  याद करती हूँ तो तय नही कर पाती उन औरतों के व्यवहार को मासूमियत का नाम दूँ या

 समझदारी का ।

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Tuesday, December 1, 2020

"कुरजां" ।। हाइबन।।

 शीतकाल में साइबेरिया से राजस्थान  में प्रवासी पक्षी साइबेरियन सारस (डेमोइसेल क्रेन) भरतपुर के केवलादेव पक्षी विहार व अन्य अभयारण्यों में सर्दियों में प्रवास के लिए आते हैं । चुरू जिले के तालछापर अभयारण्य  को  प्रवासी पक्षी “कुरजां” की शरणस्थली कहा जाता है । राजस्थानी भाषा में साइबेरियन सारस को कुरजां कहा जाता है ।

                     मरूभूमि की महिलाएँ  कुरजां के साथ सहेली

 जैसा रिश्ता मानती हैं ।यहाँ के लोक गीतों में विरहिणी स्त्री और कुरजां के बीच आपसी संवाद का रूप गीत में ढल कर भावनाओं का निरूपण होता है जिसमें कुरजां पक्षी संदेश वाहक के रूप में अपनी भूमिका का निर्वहन करती है । "कुरजां गीत" अपने वियोग पक्ष के श्रृंगार भावों के साथ राजस्थान के लोक जीवन में रचा बसा हैं ।

          थार रेगिस्तान के जलवायु की खास विशेषता है कि यहाँ सदियों से देसी परिन्दों के अलावा अनेक प्रजातियों के 

प्रवासी पक्षियों का आवागमन बना ही रहता है जो यहाँ 

की जैव विविधता को बनाए रखने में अहम् भूमिका निभाते हैं। लेकिन प्रवासी पक्षियों की प्रजाति में साइबेरियन सारस पर्यटकों के लिए आकर्षण केन्द्र होने के साथ साथ यहाँ के जन मानस का भी अभिन्न अंग है ।सर्दियों में झीलों और तालाबों के

किनारे इन्हें देख कर बरबस ही मुँह से निकल पड़ता है -


झील किनारे ~

तपस में कुरजां

पँख सेकती ।


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