अक्सर महत्वपूर्ण दस्तावेज या कोई प्रतियोगी परीक्षा का फॉर्म भरते हैं तो एक प्रश्न होता है -- “कोई शारीरिक पहचान” और हम ढूंढना शुरू कर देते हैं माथे पर ,हाथों पर या घुटनों पर लगे चोट के निशान जो प्राय: सभी के मिल ही जाते हैं । मैं भी ऐसी बातों से अलग नही हूँ बल्कि “बिना देखे चलती है ।” की उपाधि आज भी साथ लेकर ही चलती हूँ । जाहिर सी बात है चोटों के निशान भी ज्यादा ही लिए घूमती हूँ ऐसे में एक घटना अक्सर मेरी आँखों के सामने अतीत से निकल वर्तमान में आ खड़ी होती है जो कभी हँसने को तो कभी इन्सान की सोच पर सोचने को मजबूर कर देती है।
एक बार किसी जरुरी काम से मैं घर से निकली.. सोचा बेटे के स्कूल से आने से पहले काम पूरा करके घर आ जाऊँगी। आसमान में बादल थे मगर इतने घने भी नही कि सोचने पर मजबूर करें कि घर से निकलना चाहिए कि नही। मगर वह महिना सावन का ठहरा घर वापसी के दौरान रास्ते में ही झमाझम बारिश
शुरू गई । सदा अच्छी लगने वाली बारिश उस दिन आनंददायक की जगह कष्टदायक लग रही थी । मुझे घर पहुँचने की जल्दी थी कि बेटा स्कूल से निकल गया तो पक्का भीग रहा होगा और इसी सोच में कदम रूके नही बल्कि तेजी में भागने
की स्थिति में पहुँच गए थोड़ी सी दूरी पर घर है पहुँच ही जाऊँगी इसी सोच के साथ । घर से थोड़ी दूरी पर एक चौराहा था जहाँ ढलान भी था और बीच से क्रॉस करती नाली भी। वहाँ बारिश
के पानी का बहाव ज्यादा ही था। मैंने देखा वहाँ एक कोने में हाथों में थैले लिए तीन औरतें भीगती खड़ी हैं। मैं चलते हुए सोच रही थी --’भीग तो गई अब क्यों खड़ी हैं बेवकूफ कहीं की ।’ मेरी सोच को तेज झटका लगा - धड़ाम.. एक आवाज़ ..
और इसी आवाज के साथ मैं चारों खाने चित्त.. नाली में मेरा पैर अटक गया था ।
मैं संभलकर खड़ी होने की कोशिश कर ही रही थी
कि कानों में आवाज गूंजी
--”ऐ …,जल्दी से आ जाओ! नाली यहाँ पर है।”
और वे लगभग मेरे आसपास की जगह को फलांगती हुई आगे निकल गईं और अपने छीले हुए घुटने और हथेली के साथ लड़खड़ाती हुई मैं अपने घर की ओर। बारिशों के दौर में सड़कों पर बहते पानी के वेग को देख कर अक्सर मैं उस घटना को याद करती हूँ तो तय नही कर पाती उन औरतों के व्यवहार को मासूमियत का नाम दूँ या
समझदारी का ।
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नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 14 दिसंबर 2020 को 'जल का स्रोत अपार कहाँ है' (चर्चा अंक 3915) पर भी होगी।--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
चर्चा मंच पर प्रविष्टि के लिंक को सम्मिलित करने के लिए सादर आभार आ. रविंद्र सिंह जी ।
Deleteमासूमियत भरी समझदारी उन्हें बचा गई
ReplyDeleteआपकी बात बिल्कुल सही है सर ! बहुत बहुत आभार आपकी उपस्थिति हेतु ।
Deleteसमझदारी ही थी। रोचक संस्मरण।
ReplyDeleteसत्य कथन । बहुत बहुत आभार विकास जी !
Deleteएक माँ के बच्चे जब स्कूल से आने वाले हों और वो कहीं बाहर फँस जाय तो उस वक्त उसकी समझदारी और मासूमियत सब ग़ायब हो जाती है केवल उसे उसके बच्चे कहीं अकेले खड़े नज़र आ रहे होते हैं..आपका रोचक संस्मरण बिल्कुल अपने जैसा है..बहुत बढ़िया लिखा है मीना जी आपने..।सादर नमन..।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार जिज्ञासा जी आपकी सारगर्भित समीक्षात्मक प्रतिक्रिया का..लेखन को सार्थकता देती आपकी उपस्थिति के लिए आभारी हूँ ।
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteउत्साहवर्धन करती सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार सर !
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteउत्साहवर्धन करती सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार सर !
Deleteसमझदार चलाक कहिये।
ReplyDeleteमासूम होती तो आपको भी रोक ही लेती।
बहुत अच्छी पोस्ट।
नई रचना- समानता
सत्य वचन :-)
Deleteबहुत बहुत आभार रोहितास जी । आपकी सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से लेखन का मान बढ़ा ।
अलग सी सुन्दर रचना
ReplyDeleteआपकी सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से लेखन का मान बढ़ा..हृदयतल से आभार ।
Deleteनिसंदेह समझदारी ही थी अन्यथा वे मदद के लिए आगे आती । जीवन ऐसे ही बहुत कुछ सिखाता रहता है ।
ReplyDelete"जीवन में ऐसी घटनाएं हमें बहुत कुछ सीखाती हैं " सत्य यही है जीवन का...हृदय से असीम आभार अमृता जी ।
Deleteसीख देता संस्मरण आपने लिखा भी इस अंदाज में है कि हँसी तो एक बार आ ही गई साथ ही कोफ्त हुई कि किसी की आफत को भी लोग भुना लेते हैं ।
ReplyDeleteवैसे बहुत चालू थी पार होने की जगह तो शायद ढूंढ रही होगी कि कोई पार करें तो ठीक दिशा मिले, पर ऐसे में आपको उठाकर तो जाती ।
बहुत सुंदर।
छिले जख़्मों पर मरहम पट्टी करते सोचती तो मैं भी यही थी मगर जिसको भी घर में बताया हँसा जरूर...आपको भी हँसा दिया यह बहुत बड़ी बात है । परिस्थितियों से कभी कभी यूं भी दो-चार होना पड़ता है । आपकी अनमोल प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार ।
Deleteसमझदार के साथ ही स्वार्थी भी थीं...गिरे को उठाना तो बनता था| सुन्दर अभिव्यक्ति !!
ReplyDeleteआपकी उपस्थिति से सृजन को सार्थकता मिली । हार्दिक आभार ऋता शेखर जी ।
Deleteसुन्दर संस्मरण ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार शांतनु जी ।
Deleteहृदयस्पर्शी संस्मरण दी।
ReplyDeleteबच्चों के ख़ातिर ऐसी दौड़ मैंने भी काफ़ी लगाई है। दौड़ना पड़ता है।
सादर
सत्य कथन प्रिय अनीता । स्नेहिल आभार उत्साहवर्धन करती अपनत्व भरी प्रतिक्रिया हेतु ।
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ReplyDeleteरोचक प्रसंग को रोचक शैली में लिखा है आपने
ReplyDeleteसाधुवाद 🙏🌹🙏
स्नेहिल आभार उत्साहवर्धन करती अपनत्व भरी प्रतिक्रिया हेतु वर्षा जी 🙏🌹🙏
Deleteरोचक प्रसंग। उतनी ही रोचक प्रस्तुति। सादर।
ReplyDeleteआपकी सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से लेखन का मान बढ़ा । हार्दिक आभार वीरेंद्र सिंह जी ।
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteआपकी सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से लेखन का मान बढ़ा । हार्दिक आभार मनोज जी ।
ReplyDeleteइस संस्मरण से सीख मिली आपको. परन्तु वे औरतें आज के ज़माने के मुताबिक़ होशियार मानी जाएँगी; गिरते हुए को उठाना आजकल बेवकूफ़ी माना जाता है.
ReplyDeleteसंस्मरण की समीक्षात्मक सारगर्भित प्रतिक्रिया से सं संस्मरण का मान बढ़ा ।बहुत बहुत आभार डॉ. जेन्नी शबनम जी ।
Deleteसच में कई बार लोगों की ऐसी अनदेखी खुद पर विचार करने को मजबूर कर देती है.....।
ReplyDeleteहमें क्या पड़ी है चल छोड़ जैसे जुमले सुनकर लगता है कोई इन्हें कुछ समझाता क्यों नहीं....।
बहुत ही रोचक और सीख देता संस्मरण।
संस्मरण की समीक्षात्मक सारगर्भित प्रतिक्रिया से संस्मरण का मान बढ़ा ।बहुत बहुत आभार सुधा जी ।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार नीतीश जी ।
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