“मुझे नहीं रहना व्यवहारिकता के साथ..,इस के साथ मुझे अच्छी वाइब्स नही आती।” - स्वाभिमान कुनमुनाया ।
“तुम्हारी उच्छृंखलता पर अंकुश लगाने के लिए बहुत जरूरी है तुम्हारा इसके साथ होना…, इसके साथ रह कर कुछ सीखो।” आवेश में परम्परा चीखी ।
“मेरा दम घुटता है इसके साथ ।” स्वाभिमान बहस के
मूड में था।
“याद रखो ! बिना व्यवहारिकता के तुम्हारा अस्तित्व शून्य है।”दहाड़ते हुए परम्परा ने कहा और आवेश में एक झन्नाटेदार थप्पड़ स्वाभिमान के चेहरे पर जड़ दिया ।
“तुम्हारी इन्हीं हरकतों से नैतिकता पहले ही घर छोड़ चुकी
है…,यही हाल रहा तो एक दिन इसको भी खो दोगी ।”
लड़खड़ा कर गिरते स्वाभिमान को संभालते हुए चेतना ने
गंभीरता से कहा ।
इस कड़वे सच को सुन व्यवहारिकता इतरा रही थी और परम्परा
के झुके माथे पर चिन्ता भरी सिकुड़न थी ।
***
"परम्परा" यदि कठोर हो जाती है है तो उसके साथ निबाह करना थोड़ा मुश्किल हो ही जाता है। ऐसे में स्वाभिमान उदंड हो ही जाएगा और व्यवहारिकता का इतराना लाजमी।
ReplyDeleteसमय के साथ यदि परम्परा में बदलाव नहीं हुआ तो सब का नैतिक पतन हो ही जाएगा। और फिर सब दिखावें की दुनिया होती जाएगी।
बहुत गहरी सोच और बेहतरीन अभिव्यक्ति,सादर नमन मीना जी 🙏
कामिनी जी हृदयतल से आभार सृजन को सार्थक करती सारगर्भित समीक्षा हेतु । मेरी लेखनी धन्य हुई आपकी ऊर्जावान प्रतिक्रिया से।सस्नेह नमन 🙏
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(२५-१२ -२०२१) को
'रिश्तों के बन्धन'(चर्चा अंक -४२८९) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
चर्चा मंच पर सृजन को सम्मिलित करने के लिए हृदयतल से आभार अनीता जी ।सस्नेह ...,
Deleteस्वाभिमान चेतना नैतिकता के साथ व्यावहारिक बने तो खुद नई परम्परा बना लेगा....वरना अपना स्वरूप खो कर मात्र अहंकार कहलायेगा...
ReplyDeleteवाह!!!
एकदम नये अंदाज में बहुत ही लाजवाब एवं विचारणीय सृजन।
आपकी सराहना सम्पन्न समीक्षा ने सृजन को सारगर्भित सार्थकता प्रदान की सुधा जी और मेरे उत्साह को द्विगुणित किया । हृदयतल से स्नेहिल आभार ।
Deleteवाह! अद्भुत...!
ReplyDeleteबहुत ही शानदार.. .!
हार्दिक आभार मनीषा जी 🌷सस्नेह
Deleteस्वाभिमान जब जब भी उद्दंड होता है, स्वाभाविमान न रह कर सिर्फ अभिमान रह जाता है।
ReplyDeleteऔर चेतना ही उसे अपने स्थान पर आरूढ़ करती है।
परंपराएं तो निरुउद्देश्य होती सी स्वयं अपना अस्तित्व खोती है। चिंता तो परम्पराओं को है ही ... व्यवहारिकता तो साधन मात्र है झूठ का बाना पहने।
अद्भुत पोस्ट ,
अद्वितीय भाव कितना गहन मंथन करके इन पांचों शब्दों को इतनी सुंदरता से एक दूसरे का पूरक बताया है।
बहुत बहुत सुंदर।
आपकी सराहना सम्पन्न समीक्षा ने सृजन को सारगर्भित सार्थकता प्रदान करने के साथ - साथ मेरे उत्साह को भी द्विगुणित किया । हृदयतल से स्नेहिल आभार कुसुम जी!
Deleteबहुत ही सुन्दर सृजन
ReplyDeleteसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार भारती जी!
Deleteबहुत सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार अनुराधा जी!
ReplyDeleteवाह ! सोच से परे का लेखन । व्यक्तित्व के माध्यम से तो लिखना आसान है, परंतु इतनी गहनता विरले ही देखने को मिलती है आदरणीय मीना जी । बहुत ही दूरगामी संदेशात्मक और प्रेरणादायक सृजन पढ़कर बहुत सुखद अनुभूति हुई । मेरी हार्दिक शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteआपकी सराहना सम्पन्न समीक्षा ने सृजन को सारगर्भित सार्थकता प्रदान करने के साथ - साथ मेरे उत्साह को भी द्विगुणित किया । हृदयतल से स्नेहिल आभार जिज्ञासा जी🙏🌹🙏
Deleteशुभकामनाएं नववर्ष की
ReplyDeleteनववर्ष की शुभकामनाओं सहित हृदय से आभार जोशी सर🙏
Deleteबहुत ही शानदार लेखन... गागर में आपने सचमुच सागर भर दिया है...
ReplyDeleteआपकी सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से लेखन सार्थक हुआ।
ReplyDeleteनववर्ष की शुभकामनाओं सहित हार्दिक आभार विकास जी ।
नमस्ते.....
ReplyDeleteआप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की ये रचना लिंक की गयी है......
दिनांक 26/02/2023 को.......
पांच लिंकों का आनंद पर....
आप भी अवश्य पधारें....
पाँच लिंकों का आनन्द में सृजन को सम्मिलित करने के लिए हृदयतल से बहुत बहुत आभार कुलदीप सिंह जी 🙏
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