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Tuesday, July 28, 2020

'मोह'

ऐसा नही कि कभी तुम्हारी याद‎ आई  ही नही , आई ना.., जब कभी किसी कशमकश में उलझी ,जब  कभी खुद के वजूद की तलाश हुई । सदा तुम्हीं तो जादू की झप्पी बनी , कभी फोन पर , तो कभी प्रत्यक्ष‎ रूप‎ में । तुम , तुम हो इसका अहसास सदा तुम्हारी अनुपस्थिति में‎ हुआ । मुझे सदा यही  लगा कि हर समस्या का हल है तुम्हारे पास । मैं तुम‎ से कुछ कहूँगी अगले ही पल तुम जैसे कोई जादुई छड़ी घुमाओगी और परेशानी फुर्र ..। बचपन से सदा अलाहद्दीन का चिराग समझा तुम्हें.., वह अनवरत बोले जा रही थी धारा-प्रवाह.. ‘अगला जन्म यदि होता है तो…,  तो मैं यही जन्म फिर से जीना चाहूंगी । तुम सदा ऐसी ही रहना ,अगले जन्म में भी ।'
       -- "देखो ऊपर वाले ने जो करना है वो उसे ही करने दो वो उसी का काम है हम सीमाओं में बँधे प्राणी हैं‎ । और हाँ तुम कहाँ आज भावनाओं में बह रही हो तुम्हारी अपनी सीमाएँ और बंधन
हैं । किसी की छाया में बंध कर मनुष्य का सम्पूर्ण विकास कहाँ हो पाता है । अपनी व्यक्तिगत पहचान के लिए स्वयं की सक्षमता और उसका अनुपालन ही मानव को सम्प्रभु सम्पन्न बनाता है ।
 इस सम्प्रभुता का परित्याग कर स्वयं का अस्तित्व खो जाता है कहीं । 'मैं' हम में बदल कर विशद बने तो बेहतर है लेकिन कई बार अत्यधिक मोह का भाव सुकून की जगह पराश्रय का भाव भी पैदा कर देता है..,जरा इस विषय पर भी गौर करना ।"
       मोह को सीमाओं में बाँध कर  सहजता और निर्लिप्तता के साथ बात का समापन कर वह एक सन्यासी की तरह आगे
बढ़‎ गई ।
शायद सांसारिक व्यवहारिकता से थक कर ।

22 comments:

  1. मर्मस्पर्शी सृजन कभी न भूलने वाले पलों को बहुत ही सुंदर गूँथा है आपने ...मोह मन का स्थाई भाव है जीवन से जुड़े प्रत्येक पहलू में अपना स्थान स्थाई बना लेता है कभी न जाने के लिए।बहुत ही सुंदर सृजन दी ...
    मन को छूती पंक्तियाँ ..
    ऐसा नही कि कभी तुम्हारी याद‎ आई ही नही , आई ना.., जब कभी किसी कशमकश में उलझी ,जब कभी खुद के वजूद की तलाश हुई । सदा तुम्हीं तो जादू की झप्पी बनी , कभी फोन पर , तो कभी प्रत्यक्ष‎ रूप‎ में । तुम , तुम हो इसका अहसास सदा तुम्हारी अनुपस्थिति में‎ हुआ

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    1. अनमोल समीक्षात्मक प्रतिक्रिया अविस्मरणीय सौगात है मेरे लिए अनुजा । सस्नेह आभार इस मान के लिए..,

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  2. मोह को सीमाओं में बाँध कर सहजता और निर्लिप्तता के साथ बात का समापन कर वह एक सन्यासी की तरह आगे,,,,,,,,बहुत भावपूर्ण पोस्ट बहुत सुंदर ।आदरणीया प्रणाम

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    1. ब्लॉग पर आपका तहेदिल से स्वागत आ.मधुलिका जी ।
      सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से सृजन से सार्थकता मिली । सादर आभार ।

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  3. किसी की छाया में बंध कर मनुष्य का सम्पूर्ण विकास कहाँ हो पाता है ...

    बहुत खूब , ठीक कहा !!

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    1. सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से सृजन को सार्थकता मिली ।
      असीम आभार सर !

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  4. 'मैं' हम में बदल कर विशद बने तो बेहतर है लेकिन कई बार अत्यधिक मोह का भाव सुकून की जगह पराश्रय का भाव भी पैदा कर देता है..,
    सही कहा आपने ...सटीक एवं विचारणीय
    बहुत ही लाजवाब सृजन।

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    1. सारगर्भित प्रतिक्रिया से लेखन को सार्थकता मिली । स्नेहिल आभार सुधा जी !

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  5. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (10 अगस्त 2020) को 'रेत की आँधी' (चर्चा अंक 3789) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    --
    -रवीन्द्र सिंह यादव

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    1. चर्चा मंच पर मेरे सृजन को सम्मिलित करने हेतु सादर आभार आदरणीय.

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    1. उत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार सर.

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  7. सचमुच- मोह का अतिरेक मन को दुर्बल बना देता है.

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    1. आपकी अनमोल प्रतिक्रिया से सृजन का मान बढ़ा । तहेदिल से आभार मैम !

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    1. आपकी सराहना से लेखनी धन्य हुई ..हार्दिक आभार सर.

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  9. मॉडरेशन हट जाए तो अच्छा नहीं रहेगा क्या ?

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    1. सर ! जानती हूँ आप सब विद्वजनों के सम्मान में यह उचित नहीं है 🙏🙏 कतिपय कारणों से स्वयं को दुखी पाया तो लगाया. लिखना हृदय से बहुत अच्छा लगता है इसलिए लिखने की आदत छोड़ नहीं पाई . यकीन कीजिए मैं बहुत आदर करती हूँ ब्लॉग जगत के सभी गुणीजनों का🙏🙏 .अगर फिर भी आप कहते हैं तो हटा दूंगी ।

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  10. मोह और मोक्ष में बस बारीक रेखा सा अंतर
    –'वीणा के तारों' से खीर से बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ यानी बिना सहायता भुवन में स्थित जीव जंतु प्राणी स्थापित नहीं हो पाता है

    आपकी लेखनी चुम्बक है

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    1. निशब्द करती आपकी दुर्लभ प्रतिक्रिया के लिए असीम आभार दी 🙏🙏

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  11. मुझे सदा यही लगा कि हर समस्या का हल है तुम्हारे पास । मैं तुम‎ से कुछ कहूँगी अगले ही पल तुम जैसे कोई जादुई छड़ी घुमाओगी और परेशानी फुर्र ..। बचपन से सदा अलाहद्दीन का चिराग समझा तुम्हें.., वह अनवरत बोले जा रही थी धारा-प्रवाह.. ‘अगला जन्म यदि होता है तो…, तो मैं यही जन्म फिर से जीना चाहूंगी । तुम सदा ऐसी ही रहना ,अगले जन्म में भी ।'
    अक्सर मेरी बेटी मुझे यही कहती है और मैं उसे यही समझती हूँ " कई बार अत्यधिक मोह का भाव सुकून की जगह पराश्रय का भाव भी पैदा कर देता है."
    आप चाहो ना चाहो आप के इर्द-गिर्द एक मोह-पास बंधा ही होता है। बहुत कुछ कहती,हृदयस्पर्शी भाव समेटे बेहतरीन सृजन मीना जी

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    1. सुन्दर सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के साथ मन की बात साझा करने के लिए तहेदिल से आभार कामिनी जी . लेखनी सफल हुई आपकी अनमोल प्रतिक्रिया से...सस्नेह वन्दे .

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