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Monday, December 15, 2025

“गुलाब की टहनी”

चकले और बेलन के बीच आटे की लोई आकार ले रही थी  और हाथ चलाती नवविवाहिता पूर्णिमा खोई थी अपनी कल्पनाओं के संसार में , जहाँ अनगिनत सपनों में से कोई एक आकार लेने के लिए प्रयासरत था ।

-“कहाँ ध्यान है तुम्हारा !  दूध उबल कर नीचे गिर रहा है ? तवा खाली पड़ा है जब दो काम एक साथ नहीं होते तो कम से कम एक तो ढंग से कर लो ।” जेठानी ने गैस की नोब बंद करते हुए उसे लगभग झिड़क ही दिया ।

- “सॉरी दी ! आगे से ध्यान रखूँगी” सकपकाते हुए पूर्णिमा कल्पना लोक से यथार्थ लोक में आ गिरी ,जल्दी से चपाती सेक कर उसने जैसे ही चपाती को घी लगाने के लिए चम्मच कटोरी में डुबोई तो पुन:हिदायत गूंजी - “ एक हफ़्ते में एक किलो घी ख़त्म हो जाता है ,चपातियों पर लगाते समय यह भी दूध की तरह बिखेर देती हो क्या?” जेठानी की हँसी पूर्णिमा को गोखरू के काँटे सी चुभी ।

  रोटियों पर घी की मात्रा कम देख कर सास ने ताना मारा -“मायके में घी नहीं देखा होगा, लगाना आए भी तो कैसे ?

   बातों की गंभीरता और नये परिवेश को आत्मसात करने के लिए पूर्णिमा लगभग कामों में डूबी रहती और उसके मस्तिष्क में सक्रिय रहता उसकी कल्पनाओं का जखीरा जो अतीत और वर्तमान के साथ उसको दिन भर व्यस्त रखता ।

     दोपहर के काम समेट कर बालों में कंघी करने के उद्देश्य से वह अपने कमरे की तरफ मुड़ी ही थी कि सास ने पीछे से आवाज दी-   पूर्णिमा !

    उसने  मुड़ कर देखा तो उनके हाथ में हरी पत्तियों के बीच मिट्टी में लिपटी गुलाब की टहनी थी और आँखों में खेद भरा अपनापन ।

 -“राह चलती गाय ने मुँह मार दिया गमले में.., लॉन तक पहुँच गई थी गाय ..,बच्चों ने गेट खुला छोड़ दिया होगा बाहर जाते समय । मैं वहाँ पहुँची तब तक उसने गमला तोड़ दिया .., तुमने कितने मन से गमले में  लगाई थी यह ।”

   कोई बात नहीं माँ जी ! बालों की कंघी भूल पूर्णिमा उनके हाथ से मुड़ी-तुड़ी टहनी ले कर लॉन के कोने वाली क्यारी की ओर चल पड़ी,सास भी साथ-साथ थीं बहू के लिए अनायास ही ममत्व उमड़ आया उनके मन में ।

        खुरपी से गड्ढा खोदती पूर्णिमा सास से बोली - “लग जाएगी माँ जी ! गुलाब की टहनी है बस थोड़ा ध्यान मांगती है ।”

        पूर्णिमा की बात सुन कर सास के होंठों पर अर्थपूर्ण मुस्कुराहट खिल उठी वे अपनत्व भरी नजरों से कभी पूर्णिमा के खुरपी चलाते मिट्टी में सने हाथों को तो कभी जमीन पर पड़ी गुलाब की टहनी को निहार रही थीं ।


                                     ***


Friday, January 31, 2025

“सवाल”

     “मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने…॥” बहुत प्यारा गाना है “आनन्द” मूवी का ।आज यूट्यूब पर गाने सुनते-सुनते मुकेश जी के गाने सामने आए और उन्हीं गानों में गुलजार साहब का यह गीत भी था जिसने उस दौर की याद दिला दी जब ख़त लिखने का मतलब कुशल क्षेम जानना ही नहीं भावनाओं का आदान-प्रदान भी हुआ करता था ।

               सात रंग के सपने.., गगनचुंबी सपनों की उड़ान और भी न जाने क्या-क्या ? वो शिकायती ख़त लिखते समय शायद उसके दिलोदिमाग़ पर इसी गाने का असर रहा होगा तभी तो उसने लिखा था - “ये सात रंग के सपने मेरे अकेले नहीं हैं कहीं न कहीं आप भी तो शामिल हैं इनमें.., जब पूरे ही नहीं करने थे तो इस बारे में सोचा ही क्यों ?” शायद नाराज़गी थी कहीं न कहीं कि मेरा सहयोग नहीं है लक्ष्य साधना में ।यहाँ अपनी सोच कुछ अलग सी थी ..,गीत के मर्म के समान और उस सोच को समझने की ज़रूरत सपनों के पीछे भागते समय भला किसको याद रहती है । हमारे बीच यह आख़िरी संवाद था ख़तों के माध्यम से एक -दूसरे की हौसला अफ़ज़ाई का । समय के साथ-साथ सोचें और रास्ते बदलते चले गए सोचने समझने के नजरिये में कमी कहाँ रह गई , समय के साथ यह  बात भी बीते समय की हो गई ॥

                         बहुत बार इन्द्रधनुष देखती हूँ तो सोचती हूँ कितनी अजीब बात है ।सात रंगों का मिलन और परिणाम - श्वेत प्रकाश ! ,कोरे काग़ज़ सा..,! मानो मूक आमन्त्रण दे 

रहा हो -  “आओ ! कुछ साकार करो मुझ पर ,कोई अल्फ़ाज़.., कोई आकृति .., कुछ भी जो तुम्हारे दिल में हो । मैं तुम्हारी ख्वाहिश को साकार करने में सक्षम हूँ अपने कलेवर पर । बस..,  कभी भी यह मत भूलना मैं अकेला एक नहीं हूँ मिश्रण हूँ सात रंगों का.., मेरा वजूद अनमोल है ।तुम्हारी सोच मुझ से ज़्यादा नहीं तो कम से कम मेरे जैसी तो होनी ही चाहिए ।”

                       खैर, अपना सवाल तो गीत के बोल , ख़त के अल्फ़ाज़ों  पर आज भी वही का वही टिका  है - रंग सात ही क्यों ? कम रंगों के मिश्रण से भी परिणाम सुखद हो सकते हैं । क्यों चाहिए सातों रंग..,सारा आसमान । जीने के लिए छोटी -छोटी बातें..,छोटी - छोटी आशाएँ और छोटी-छोटी ख़ुशियाँ क्या कम हैं ।

                           

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