को देखने के साथ पास-पड़ौस के घरों से उठता धुआँ देखना उसे
बड़ा भला लगता है । वह अनुमान लगाया करती है कि कौन से घर
में सबसे पहले खाना बनना शुरू होगा । उसकी सहपाठिन सहेलियाँ क्या कर रही होंगी अपने घरों में । वह दो दिन से देख रही थी श्यामा काकी के घर से किसी तरह की सुगबुगाहट नहीं थी ।कल स्कूल से आते वक़्त उनके घर का दरवाज़ा भी खुला देखा मगर सांझ के समय उठता धुआँ नहीं देखा छत की मुँडेर थामे वह यह सोच ही रही
होती है कि माँ की आवाज़ आती है - “अब आ भी जा नीचे.,
अंधेरा हो रहा है !”
- “आई माँ !” कहते हुए वह सीढ़ियों से फुर्ती से उतर कर माँ के आगे आ खड़ी हुई ।
- “ स्वेटर पहन ले ! तेरा नया कार्डिगन बन गया , देखूँ तो कैसा लग रहा है ।रोज पूछती है कब पूरा होगा और आज बन कर तैयार हो
गया तो एक बार भी नहीं पूछा ।” माँ की बात पूरी होती उससे पूर्व राधिका गाजरी रंग के कार्डिगन में माँ के आगे फिर से आ खड़ी हुई ,चमकती आँखों से वह मानो माँ से पूछ रही थी -“कैसी लग रही
हूँ माँ !”
- “खाने में क्या बना रही हो माँ.., भूख लगी है जोर से ।”
नमकीन चावल …, छत पर खड़ी थी तब नहीं लगी ।” मुस्कुराती हुई माँ बोली और गोभी , आलू काटने के लिए स्वयं के आगे और मटर की टोकरी के साथ प्याला उसकी ओर बढ़ा दिया मटर छिलने के लिए ।
अचानक उसे जैसे ही कुछ याद आया छिले मटर के दाने प्याले में डालते हुए बुदबुदा उठी -“ माँ श्यामा काकी है तो यही मगर उनके
घर से धुआँ नही उठ रहा शायद उनके घर गैस का कनेक्शन लग
गया है ।”
उसकी बात सुनते ही माँ की आँखें सोच में डूब गईं और वे गहरी साँस लेते हुए उठी - “जहाँ बिजली के कनेक्शन की बात दूर की कौड़ी हो वहाँ गैस कनेक्शन की बात करती है लड़की !” कहने के साथ ही उन्होंने छिले आलू और गोभी पानी में डाले और राधिका से कहा -मेरे साथ चल ।”
थोड़ी देर बाद तौलिए से ढकी अनाज की भरी बाल्टी और भगौने भर आटे के साथ चिन्ता में डूबी माँ के साथ गाजरी कार्डिगन की जेबों में हाथ डाले चलती राधिका नमकीन चावल की बात भूलकर श्यामा काकी के घर की ओर कदम बढ़ाते हुए खुश थी कि कल शाम छत पर सांझ के तारे के साथ उनके घर से उठता
धुआँ देख सकेगी ।
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सुंदर लघुकथा। पड़ोसी ही पड़ोसी के काम आता है। यह संवेदनशीलता अब कम ही देखने को मिलती है लेकिन मिलती है।
ReplyDeleteआपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया ने सृजन को सार्थक किया बहुत बहुत आभार विकास जी !
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार ९ दिसंबर २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
पाँच लिंकों का आनन्द में सृजन को सम्मिलित करने के लिए हार्दिक आभार श्वेता जी !
Deleteखूबसूरत लघु कथा । आज जब पड़ोस में कोई किसी को पहचानता नहीं वहाँ इतनी फिक्र करने वाले लोग भी हैं । मर्मस्पर्शी रचना ।
ReplyDeleteआपकी सराहना भरा उत्साहवर्धन मेरी लेखनी की ऊर्जा है। हृदयतल से आभार आदरणीया दीदी ! सादर सस्नेह वन्दे।
Deleteआजकल मोबाइल कम्प्यूटर ने बच्चों को बुद्धि बस मोबाइल स्क्रीन जितनी संकीर्ण कर दी है उन्हें अपने घर में क्या बना है तो दूर अपनी प्लेट से क्या खा रहे हैं नहीं पता।फिर राधिका जैसे बच्चे वाकई प्रशंसा के पात्र हैं और ऐसी सोच विकसित करनी होगी बच्चों में ...इसी में समाज का कल्याण निहित है ।बहुत ही सार्थक एवं सारगर्भित लघुकथा ।
ReplyDeleteआपकी सारगर्भित समीक्षात्मक प्रतिक्रिया से लेखनी सार्थक हुई । हृदयतल से आभार सुधा जी ! सादर सस्नेह वन्दे ।
Deleteराधिका जैसे संवेदनशील लोग या कहें कि बालक- बालिकाएं ही समाज की अनमोल धरोहर हैं।एक सन्वेदशील विचारों से सजी रचना के लिए बधाई और शुभकामनाएं प्रिय मीना जी!
ReplyDeleteआपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया ने सृजन को सार्थक किया ।हृदयतल से आभारी हूँ प्रिय रेणु जी ! सादर सस्नेह वन्दे ।
ReplyDeleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (11-12-22} को "दरक रहे हैं शैल"(चर्चा अंक 4625) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
चर्चा मंच की चर्चा में सृजन को सम्मिलित करने के लिए आपका हार्दिक आभार कामिनी जी 🙏
Deleteबहुत ही सुन्दर लघुकथा सखी,राधिका के माध्यम से आपने एक संदेश दिया है कि बच्चों का प्रकृति से जुड़ाव जरुरी है।
ReplyDeleteआपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया ने सृजन को सार्थक किया।हृदयतल से आभारी हूँ सखी ! सादर सस्नेह वन्दे ।
Deleteआज के दौर में तो बच्चों को ये पता नहीं होता कि उनके घर में खाना बना है या नही कोई खाया है या नही । राधिका जैसे बच्चे हमारे समय में थे।समाज को सन्देश देती बहुत ही सुन्दर लघुकथा,सादर नमन मीना जी 🙏
ReplyDeleteमानवीय मूल्यों की सार्थकता के लिए यह अंकिचन प्रयास है सखी ! लेखनी को सार्थक करती आपकी सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार । सादर सस्नेह वन्दे 🙏
Deleteवाह मीना जी, एक धुआं ने सारी व्यथा-कथा समेट दी...अद्भुत लिखा
ReplyDeleteसृजन को सार्थकता प्रदान करती आपकी अनमोल प्रतिक्रिया के लिए हृदयतल से हार्दिक आभार अलकनन्दा जी ! सादर सस्नेह वन्दे ।
Deleteसुंदर लघुकथा
ReplyDeleteसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार आ. ओंकार सर 🙏
ReplyDeleteमानवीय मूल्य का सुंदर और अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करती बहुत ही हृदयस्पर्शी लघुकथा । सुंदर सोच की ढाणी हैं आप मीना जी । बहुत शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteआपकी सराहना सम्पन्न अनमोल प्रतिक्रिया से सृजन को मान मिला ।हृदय से असीम आभार आभार जिज्ञासा जी ! सादर सस्नेह वन्दे ।
Deleteनववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ एवं बधाई ।
ReplyDeleteआपको भी नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ ।
Deleteमानवीय मूल्यों को बढ़ावा देती बहुत सुंदर कहानी!
ReplyDeleteआपकी सारगर्भित सराहना से सृजन को मान मिला । हार्दिक आभार सहित सादर सस्नेह वन्दे ।
Deleteबहुत सुंदर कहानी।
ReplyDeleteआपकी सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से सृजन को मान मिला ।हार्दिक आभार आ.विश्वमोहन जी 🙏
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