मंदिर में हाथ जोड़े और आँखें बन्द किए मैं मन को एकाग्र
करने का प्रयास कर ही रही थी कि कानों में धीमी मगर स्पष्ट सरगोशी सुनाई दी - ‘स्टेच्यू ‘। ध्यान टूटते ही मैंने पीछे मुड़कर देखा तो मेरे पीछे एक किशोरवय का लड़का खड़ा मुस्कुरा
रहा था।अजनबी होने के बाद भी उसकी मुस्कुराहट और ‘स्टेच्यू’ बोलने का तरीका जाना-पहचाना लगा अचानक याद आया कि
कुछ वर्ष पहले मैं उसके पड़ोस में रहा करती थी और वो गर्मियों में अपने मम्मी-पापा के साथ अपने पैतृक घर आया करता था। उसका दिन का अधिकांश समय मेरे घर मेरे और मेरे बच्चे के साथ बीतता था मैं यह सब सोच ही रही थी कि प्रणाम की मुद्रा में झुकते हुए उसने कहा-’आण्टी पहचाना ?’ स्नेह से उसके सिर पर हाथ रखते हुए मैंने उसका वाक्य पूरा करते हुए कहा - ‘करण’ । उसके साथ मंदिर की सीढ़ियाँ उतरते हुए कहा- तुम्हे कैसे भूल सकती हूँ ? चिड़िया से पहले अण्डा आया या पहले चिड़िया आई, दोनों में से पहले कौन आया जैसे सवाल तुम्ही तो पूछ सकते थे। मेरी बातों का सिलसिला वहीं रोकते हुए उसने पूछा- ‘आपने वो घर क्यों छोड़ दिया ? मैं जब भी आता हूँ उस घर को देखकर आपकी और भैया की याद आती है । उसकी बातों को अनसुना करते हुए मैंने अपने घर का पता बताया और उसको मम्मी के साथ आने का
न्यौता भी दे दिया।
घर जाते रास्ते में मैं सोचती जा रही थी उस से जुड़ी वे बातें जो मैं समय के साथ भूल गई थी इस कस्बेनुमा शहर में
मेरे घर के ठिकाने की जरुरत तो उसको तब भी नही पड़ी थी जब वो सात-आठ साल का था। मुझे घर बदले साल भर हो गया था कि एक दिन शाम के समय दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी। दरवाजा खोला तो सामने अपरिचित व्यक्ति खड़ा दिखा, काम पूछने पर उस व्यक्ति ने अपने पीछे खड़े बच्चे को आगे करते हुए कहा-’जी ये बच्चा आपका नाम लेकर पूछ रहा था कि आपका घर कहाँ है ? मेरी बच्ची आपके स्कूल में पढ़ती है उसने बताया कि यह आपको ढूँढ़ रहा है।’ दूर खड़ी बच्ची और उसके पिता को धन्यवाद दे कर विदा किया और पलटकर देखा तो महाशय अन्दर बैठे मेरे बेटे को बता रहे थे कि कैसे वो मोहल्ले के बच्चों से पूछताछ करते हुए यहाँ तक पहुँचे।सर्दियों के दिन थे अँधेरा घिर आया था मैंने स्नेह से सिर सहलाते हुए उससे पूछा- ’करण अकेला क्यों चला आया? देख अँधेरा हो गया है।’ और हमेशा की तरह मेरे पर प्रश्न दागते हुए उसने मुझसे ही सवाल पूछा -’आपने वो घर क्यों छोड़ दिया ?
मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ आपको ? दोपहर से अब तक खाना भी नही खाया।’
उसकी बातों से मैं समझ गई कि वह दोपहर से भटक रहा है और अब शाम हो गई है उसके घरवाले कितने परेशान होंगे यही सोचते हुए मैने उसको खाना देकर उसके घर फोन मिलाया उसके घरवाले भी कमाल के थे उन्हे बच्चे की सुध ही नही थी उन्हें लगा पड़ोस में खेल रहा होगा।मेरा बेटा रोमांचित था उसकी बहादुरी पर कि वो बड़ा होकर कमाल करेगा इतना सा है फिर भी उसने हमें ढूँढ़ लिया और एक मैं हूँ जो उसे कहीं आने जाने नही देती ।
थोड़ी देर बाद उसके मम्मी-पापा आकर ले गए उसे और उस दिन के बाद वह आज मिला उसी गाँव के मन्दिर में । घर के दरवाजे का ताला खोलते हुए मैं सोच रही थी कि उस दिन पक्की पिटाई हुई होगी तभी तो आण्टी और उनका घर याद नही रहा मगर वह भूला कहाँ था ? उसे तो अब भी वही घर और उसमें रहने वाले लोग याद थे।
सुबह होते-होते करण और उससे जुड़ी बातें मेरे दिमाग
से निकल गई और मैं रोजमर्रा की दिनचर्या में व्यस्त हो गई। कुछ समय बाद मेरा स्थानांतरण दूसरे शहर में हो गया। शुरुआती दिन तो कठिन रहे शान्त से कस्बे का शान्तिपूर्ण जीवन और शहरी जीवन की भागमभाग में तारतम्य बैठाते थोड़ा वक्त लगा पर जल्दी ही जीवनरुपी गाड़ी पटरी पर आ गई। एक दिन फोन की घण्टी बजने पर और मेरे ‘हैल्लो’ बोलते ही चिरपरिचित आवाज कानों में पड़ी – ‘नमस्ते आण्टी ! मैं करण ! देखो मैंने आपको फिर से ढूँढ लिया।’
मैं हैरान थी उसकी आवाज सुनकर, पूछने पर उसने बताया स्कूल की मेरी एक परिचित से मेरे फोन नम्बर लिए थे।
कुशल-क्षेम पूछने के बाद हँसते हुए मैंने उससे
पूछा - आज हमेशा की तरह नही पूछोगे - ‘आपने वह घर क्यों छोड़ दिया ?’ अपनी आदत के विपरीत बड़ी गंभीरता से उसने पहली बार ना में उत्तर दिया - ‘नही .., मगर अब जब भी उस घर को देखता हूँ तो अपने बचपन के साथ आपको ज़रूर देखता हूँ वहाँ ।आप मम्मी से बात करो वे बात करना चाहती हैं आप से।’
उसकी मम्मी से बातें हुईं ,बातें कम एक माँ की दूसरी
माँ से शिकायतें ज्यादा थी। पढ़ाई-लिखाई नही करता ,पता नही कहाँ ध्यान रहता है ,कुछ-कुछ ठोकता-पीटता रहता है, कुछ-कुछ अनाप-शनाप बनाता रहता है लगता है पिछले जन्म मे कोई हाथ से काम करने वाला कारीगर था। आप कहो ना ..,पढ़ाई में ध्यान लगाए। आपकी सुनता है पड़ोस में शादी में गए थे वहाँ आपकी परिचित आई थी उन्हे देख मेरे पीछे पड़ गया - ‘माँ आण्टी के फोन नम्बर पूछो ना इनसे।’
जब मैंने उसको माँ की बातें बताई तो खिलखिला कर हँस
दिया - ‘पास हो जाता हूँ अच्छे नम्बरों से ,छोटे की तरह रैंक नही
ला पाता इसीलिए शिकायतें हो रही हैं।’
अजीब सा रिश्ता था उसके और मेरे बीच ,मेरा बेटा उस से दो-तीन साल बड़ा था वह हमेशा उसी के साथ खेलता ,ढेर सारे प्रश्न और जिज्ञासाएँ होती उसके पास, उन सब का समाधान मुझ से ही चाहिए होता उसको। कई बार झल्ला उठती मैं और कह देती थोड़े सी मगजमारी अपनी माँ और दादी के लिए भी बचा कर रख तो मासूमियत भरा जवाब होता - आप नही बता सकतीं तो वो कैसे बताएँगी। मेरा बेटा हँसकर कहता - मिल गया जवाब,उसको भी पता है तुम गुस्सा नही कर सकती फिर क्यों कोशिश करती हो झल्लाने की। रात को माँ या दादी के डाँटने और बुलाने पर घर जाता सुबह होने की प्रतीक्षा रहती थी उसे, कि कब वह मेरे घर आए। वह मेरे बेटे के साथ ‘स्टेच्यू’ खेलते-खेलते कब मेरे साथ भी खेलने लग गया पता ही नही चला। कुल दो वर्ष ही तो रही थी मैं उसके पड़ोस में लेकिन मुझे और मेरे बेटे को अक्सर एक लम्बे अन्तराल के बाद अपनी उपस्थिति से हतप्रभ कर दिया करता है।
एक अजनबी शहर में नितान्त अकेले मैं और मेरा बेटा कभी मेरे बचपन तो कभी मेरे बेटे के बचपन की यादों में डूब जाया करते हैं और हमारी बातों की समाप्ति प्राय इसी वाक्य पर होती है कि इस दुनिया में हम दो पागल हैं जो न जाने किस-किस को याद करते रहते हैं। बहुत से व्यक्ति जिनको हम याद करते हैं उनको हमारे नाम भी याद नही होंगे और एक हम है जो उनकी बातें किये जा रहे है जरुर हिचकियाँ आ रही होंगी उन्हें और वे उनको रोकने के लिए अपने प्रियजनों के नाम भी लेते होंगे बस हमारा ही नही लेते होंगे और इतना कह कर हँसते हुए अपने-अपने काम में लग जाते हैं। हम दोनों ही इस तथ्य को भली-भाँति जानते हैं कि हिचकी आना शरीर के अन्दरुनी परिवर्तनों का परिणाम है मगर लोक लुभावन किवदन्ती कि कोई याद करता है तो हिचकी आती है को महत्व देते हैं।
पता नही क्यों आज बैठे-बैठे यूं ही करण की याद आ गई और साथ ही मन में एक विचार भी कि कितनी बार ऐसा होता है कि मुझे हिचकी आती है मैं बारी-बारी से सब रिश्तेदारों और परिचितों के नाम लेती हूँ हिचकी रोकने के लिए। कई बार किसी के नाम पर हिचकी रुक जाए तो खुश हो जाती हूँ कि अमुक पहचान वाले ने याद किया लेकिन कई बार नही रुकती, रुके भी तो कैसे याद तो वो कर रहा होता है जो हम दोनों जैसा है तभी तो जब भी मिलता है तो याद दिलाता है कि मैं आप लोगों को याद करता हूँ। बचपन से लेकर अपनी युवावस्था तक एक ‘याद’ नाम का ‘नेह का धागा’ ही तो है जिसको उसने कस कर हम माँ-बेटे के साथ जोड़ रखा है और एक मैं हूँ जो सब का नाम लेती हूँ बस उसी का भूल जाती हूँ।
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