【चित्र:-गूगल से साभार】
"कोई ढंग की थैली नहीं है तुम्हारे पास ? सामान ढंग से
नहीं डाल सकते ।" तेज और कठोर आवाज में स्नेहा ने तमतमाते हुए सामान पैक करते दुकान वाले को कहा ।
आस-पास आते जाते लोग और दुकानदार को देख कर
ऋतु को बड़ा अजीब लगा उसने धीरे से स्नेहा का हाथ दबाते हुए कहा - "शांत बालिके ! क्यों गुस्सा कर रही हो ? देखो
जरा माँ की तरफ कैसे मुँह उतर गया है उनका ।" स्नेहा के साथ वह भी उन्हें चाची की जगह माँ ही कहने लगी थी ।
उसने उचटती सी दृष्टि ऑटो में बैठी माँ पर डाली और पुनः लिस्ट के सामान की खरीददारी में उलझ गई और ऋतु
उलझ गई पाँच बरस पूर्व के वक्त में…., जब स्नेहा का
स्वभाव बहुत मृदुल हुआ करता था ।
"दीदी ! यह साड़ी कैसी लगी ?"- गुलाबी रंग
की खूबसूरत सी साड़ी को उसके सामने फहराते हुए स्नेहा
का चेहरा दमक रहा था ।
"बहुत खूबसूरत.., ब्लाउज़ पीस तो एकदम यूनिक है ।"- ऋतु ने उसकी खुशी में शामिल होते हुए कहा ।
"फिर ठीक है आज ही उद्घाटन करते हैं ।" -साड़ी समेटती हुई वह बगल वाले घर में घुस गई ।
"कैसी लग रही हूँ मैं ?"- खनकती मिठास भरी आवाज़ में लम्बा सा सुर खींचती हुई अप्सरा सी स्नेहा शाम को खड़ी मुस्कुरा रही थी ऋतु के आगे । और वह ठगी सी देखती रह गयी उसको।
"न तीज न त्यौहार…,इसको तो बस सजने संवरने
के बहाने चाहिए होते हैं और एक तुम.., बहुत सुन्दर, बहुत सुन्दर कह चने के झाड़ पर चढ़ा देती हो इसे ।" - छत से
कपड़े उतारती उसकी माँ ने आंगन में झांकते हुए कहा।
"कहाँ खो गई दीदी अब चलो भी !" उसकी तन्द्रा
भंग करते हुए स्नेहा ने कुछ पैकेट ऋतु को भी पकड़ा दिये । ऑटो में बैठते हुए माँ की दुख में डूबी आवाज़ कानों में
पड़ी - "लड़की कैसी नीम सी खारी हो गई है तू !" स्नेहा की थोड़ी देर पहले की तल्ख़ी याद करते हुए ऋतु ने माँ को समझाते हुए कहा -"नीम भी बुरा नहीं होता माँ.., आजकल
तो उसकी गुणवत्ता सभी मानते हैं ।"
ऑटो चल पड़ा स्नेहा माँ को जवाब दिये बिना निर्लिप्त भाव से सामान की लिस्ट पर पैसों का हिसाब लगाने में लग गई
और माँ न जाने किस सोच में डूबी हुई ऑटो से बाहर देख
रही थी। ऋतु उस खामोशी में स्नेहा के मृदुलता से खारेपन
के सफर का अन्तराल नापने का प्रयास कर रही थी।