गेटेड सोसायटी के अपार्टमेंटस् में रहना मुझे बहुत पसन्द रहा
है हमेशा से ही सब कुछ बन्द -बन्द और सेफ । खुलेपन और ताज़गी के लिए खिड़कियाँ और बालकॉनियाँ काफ़ी हैं , कुछ कुछ यही नज़रिया रहा है मेरा घर के मामले में । बचपन के घर
के आँगन की उपयोगिता भी मेरे लिए केवल आने-जाने भर के लिए हुआ करती थी । उम्र के साथ शायद सोच बदलने लगी
है । आँगन वाले घर और घनी छाँव वाले पेड़ बहुत भाने लगे हैं आज कल ।
बहुत बार बहुत सारी जगहों पर अलहदा से विचार कौंधते हैं मन में ..,सोचती हूँ लिखूँगी । मगर टाइपिंग के लिए पेज़ खोलते - खोलते खुद पर खुद ही हावी हो जाती हूँ
और ख़्याल हल्के-फुल्के बादल बन तिरोहित हो जाते
हैं अनजान गलियों में ।अँगुलियाँ अपने लिए शग़ल ढूँढ लेती
हैं और ‘कुछ कुछ सर्च करने में व्यस्त हो जाती हैं । घण्टे भर
की माथापच्ची के बाद दिमाग़ अचेतन सा शून्य में गोते लगाता महसूस होता है ।
ज़िन्दगी की सरसता में नीरसता बैंगलोर के तापमान की तरह बढ़ने लगी है।जिसकी हवा तो अब भी पहले सी है मगर ठण्डक कहीं खो गई है ।दिन एक कप चाय जैसे लगने लगे हैं जो आदतानुसार फीकी चाय में भी मिठास के साथ ताजगी ढूँढने से बाज़ नहीं आते । कप में छनते समय अपने भूरे से रंग और भाप
के साथ चाय बाँधती तो है अपने आकर्षण में लेकिन मिठास के अभाव में होठों तक आते -आते मुँह में बेस्वादीपन घोल कर ज़ायक़े का आनन्द छीन लेती है ।समय को अपने ढंग से अपने लिए काटने का फ़ितूर अपने लिए तो कबीर की ‘माया महाठगिनी हम जानी’ की जगह ‘समय महाठग’ बन गया है ।
***
शायद मन मुक्त होकर विचरना चाहता है, आँगन वाले घरों की याद तभी आने लगी है। क्या आप भी बंगलौर में रहती हैं। समय तो सदा एक सा है, वही तो महाकाल है। यह तो सोशल मीडिया के प्रति बढ़ता हुआ हमारा आकर्षण है जो समय का भान ही नहीं होने देता
ReplyDeleteहाँ जी ! बहुत समय से..,एक बार आपकी पोस्ट पर लिखा भी था तब शायद आप असम में रहते थे और बैंगलोर शिफ़्ट होने वाले थे । आपकी ज्ञान वर्धक प्रतिक्रिया सदैव प्रेरक होती हैं । आभार सहित धन्यवाद अनीता जी ! आप भी शायद यहीं हैं ।
ReplyDeleteतब तो कहीं न कहीं मुलाक़ात हो जाएगी, हम लोग कनकपुरा रोड पर रहते हैं, आर्ट ऑफ़ लिविंग आश्रम के आगे।
Deleteमैं outer ring road के पास Bellandur में रहती हूँ ।कनकपुरा रोड का नाम सुना हुआ है ।अवश्य मिलेंगे अनीता जी ।आप कभी इधर आए तो ज़रूर सूचना दें यदि मुझे अवसर मिला तो मैं मिलतीं हूँ ।आपसे मिल कर अत्यंत ख़ुशी होगी ।
Deleteमेरे साथ हमेशा से उलट रहा है। मुझे आँगन वाले घर भाते हैं। अपार्टमेंट उतने नहीं लुभाते हैं। यह विचार आने वाली बात तो मेरे साथ भी होती है। कई बार विचार आता है कि इस पर लिखना चाहिए लेकिन फिर समय बीतता चला जाता है और बिना लिखे ही रह जाता हूँ। बढ़ती नीरसता का इलाज तो थोड़ा घूम फिर ही हो सकती है। हो सकता है कोई यात्रा आपको बुला रही हो। कोई पुरानी जगह आपको याद कर रही हो।
ReplyDeleteआपने सही कहा कई बार अपनी ही सोच एक नई शैली लगती है लेकिन लिखने तक वही धूमिल सी हो जाती है ।यात्रा का सुझाव बहुत अच्छा लगा । बहुत बहुत आभार सहित हार्दिक धन्यवाद विकास जी !
Deleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" शनिवार 27 अप्रैल 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द में सृजन को सम्मिलित करने के लिए हृदय तल से हार्दिक आभार यशोदा जी ! सादर..।
ReplyDeleteआदमी भी कौन सा खुला रह गया है अब ? सब कुछ गेटेड है l
ReplyDeleteसौ प्रतिशत सत्य सर ! सादर आभार ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteसृजन को सार्थकता प्रदान करती प्रतिक्रिया के लिए हृदय तल से सादर आभार सर !
ReplyDelete