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लिखना-पढना अब उन साड़ियों की तरह हो गया जो न जाने कब से बंद पड़ी हैं पारदर्शी पन्नियों में.., विचार आते हैं और अन्तस् की गहराइयों को स्पर्श करते हुए न जाने कैसे शून्य में खो जाते हैं ।मेरे लिए सलीके से जीने के लिए खुद को चाहना और अभिव्यक्त करना बड़ा ज़रूरी होता है और वो कहीं खो सा गया है ।शब्द-शब्द बिखरे हैं चारों तरफ। चुन कर माला गूँथनी भी चाहूँ तो फिसल जाते हैं मोतियों की मानिन्द । उदासीनता का भाव आसमान की घटाओं सा घिर आया है पढ़ने -लिखने के मामले में ।
जानती हूँ अभिव्यक्ति के प्रकटीकरण में जड़ता कम से कम मेरे लिए व्यक्तित्व में कहीं न कहीं अपूर्णता है जिसे पूर्ण बनाने का दायित्व भी इन्सान का स्वयं का ही है । इस जड़ता के समापन के लिए खुद की खुद से जंग जारी है ।
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आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" सोमवार 23 अक्टूबर 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द में सृजन को सम्मिलित करने के लिए आपका हार्दिक आभार एवं धन्यवाद यशोदा जी !
ReplyDeleteसादर वन्दे !
सुन्दर पोस्ट
ReplyDeleteसराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया ने सृजन को मान मिला । हार्दिक आभार एवं धन्यवाद सर ! सादर वन्दे !
ReplyDeleteसमय है एक यह भी |
ReplyDeleteसत्य कथन सर ! हार्दिक आभार सहित धन्यवाद आपका । सादर वन्दे !
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteहार्दिक आभार सहित धन्यवाद हरीश जी ! सादर वन्दे !
Deleteआपने तो हमारे मन की बात कह दी मीना जी
ReplyDeleteआपकी बात से लगा कि होता है ऐसा भी …,आपकी स्नेहिल उपस्थिति से आभारी हूँ ।सादर वन्दे अलकनन्दा जी 🙏
Deleteऐसा होता है मीना जी। मेरे साथ भी यही स्थिति है। ऐसी स्थिति का निराकरण स्व-प्रयासों के साथ-साथ समय का प्रवाह भी करता है।
ReplyDeleteआपकी अनमोल प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार जितेन्द्र जी । सादर वन्दे !
ReplyDeleteदीप पर्व शुभ हो
ReplyDeleteआपको भी दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ आ. सुशील सर 🙏
ReplyDeleteसुंदर सरस कृति
ReplyDeleteआपकी अनमोल प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार मनोज जी । सादर वन्दे !
Deleteख़ुद से की गई जंग में जीतता भी ख़ुद से है आदमी और हारता भी ख़ुद से है !!
ReplyDeleteअनमोल प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार अनीता जी !
ReplyDeleteसादर वन्दे !
मेरी भी मनोदशा कुछ ऐसी ही हो गई है मीना जी, मेरे मन के उलझन को भी लिख दिया है आपने 🙏
ReplyDeleteआपकी स्नेहिल उपस्थिति हेतु हार्दिक धन्यवाद कामिनी जी 🙏
ReplyDeleteकभी कभी ऐसी ही मनः स्थिति बनती है, अगर पढ़ भी लो कुछ तो लिखने का मन नहीं करता और लिखने के बाद पोस्ट भी करने का मन नहीं करता है, अतः नित्य अभ्यास करते रहना चाहिए नहीं तो लेखन से मन उचाट होने लगता है।
ReplyDeleteबहुत जरूरी विमर्श के बारे में लिखा है। आपने आत्ममंथन को प्रेरित करती पोस्ट।
आपने बिलकुल सही कहा जिज्ञासा जी ! आपकी प्रेरक उपस्थिति के लिए हृदयतल से धन्यवाद 🙏
Deleteकुछ भी कह लेने वालों के मुँह से कुछ ना कुछ तो सार्थक निकल ही जाता है तोलकर व चिंतन कर बोलने वाले तो बिन बोले ही रह जाते है...आश्चर्य तब होता है जब लगता है कि कोई फर्क भी नहीं पड़ रहा उनके न बोलने पर...
ReplyDeleteकहने वाले ज्यादा हैं सुनने वालों से....ऐसे ही लिखने वालों की कमी नहीं बस पढ़ने की आदत बनी रहे ..यही काफी है।
सत्य कथन सुधा जी ! प्रकृति ने भी शायद इसलिए सुनने को दो कान और बोलने को एक ज़ुबान दी है इनका सन्तुलन बना रहे तो ही सब कुछ ठीक है । आपके अनमोल विचार गहन भाव लिए हैं ।हृदयतल से आभार आपका । सस्नेह वन्दे !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सार्थक लेख
ReplyDeleteतहेदिल से धन्यवाद आ.आलोक जी !
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद आपकी प्रतिक्रिया पाकर लेखन सार्थक हुआ । सादर नमस्कार 🙏