छवि को देख गुंजन को यकीन नहीं हुआ कि यह वही
छवि है जिसकी चंचलता और शरारतों से उन पाँच सखियों
की मंडली गुलजार हो जाया करती
थी । अगर एक दिन वह न आती तो दूसरे दिन उसकी
जम कर क्लास लगती कि कल वह
कहाँ थी ? कॉलेज से बी.ए.करने के बाद वह अपने
पिताजी के ट्रांसफर के साथ ही परिवार सहित भोपाल
शिफ्ट हो गई । उदयपुर में सभी से फोन सम्पर्क कुछ
समय रहा लेकिन धीरे-धीरे सभी घर-गृहस्थी में रम गई ।
अल्हड़पन की जगह परिपक्वता ने ले ली ।
वैसे परिपक्वता का संबंध शायद बचपन
के मैत्रीपूर्ण संबंधों से दूरी और खुद की गृहस्थी में रम
जाने से ही है बाकी विचारों की परिपक्वता को समझ
पाना हर किसी के बस की बात कहाँ होती है ?
बरसों बाद अचानक मॉल में छवि गुंजन को देख कर
पहचान नहीं पाई...कितना बदल गई थी वह..चेहरे पर हरदम
रहने वाली मुस्कुराहट का स्थान उदासी और गंभीरता ने ले
लिया था । पुणे में चार साल से रहती छवि को पहली बार पता
चला कि उसकी प्रिय सखी की ससुराल यहीं पर है । आपस
में पता और फोन नंबर ले और फिर से मिलने का वचन
लेकर उन्होंने विदा ली । मिलने का मौका भी बहुत जल्दी
ही मिला..एक दिन गुंजन का फोन आया कि पति व घर
के सभी सदस्य शादी में गए हैं वह अस्वस्थ होने के कारण
घर पर ही है क्या वो उससे मिलने आ सकती है ? मोहित
स्कूल से घर आ चुका था
अतः ना का तो सवाल ही नहीं था , पति को फोन पर जाने
की सूचना देकर छवि के घर जाने के लिए दोनोंं माँ - बेटा
ऑटो स्टैंड की ओर बढ़ गए ।
घर पर छवि और उसकी बिटिया थीं । जो माँ के
निर्देशानुसार मोहित को स्टडीरूम में ले गई । उसे याद आया
उनके ग्रुप मेंछवि की सगाई बी.ए. फाइनल कम्पलीट होने
से पहले ही हो गई थी , अक्सर वे सभी उसको कितना छेड़ा
करती थी और दूध सी उजली छवि उनके हँसी-मजाक के
चलते गुलाबी हो जाया करती थी । मगर अब वो छवि कहाँ
थी...ये छवि तो अलग ही है मानों मूर्ति खड़ी हो सामने ।
बस एक ही अन्तर था वह सजीव
थी । बहुत पूछने की जरूरत ही नही पड़ी..बच्चों के हटते
ही वह उसके कंधे पर सिर रख कर रो पड़ी । कुछ देर बाद
सहज होने पर उसने बताया--- परम्पराओं में बंधे ससुराल
में सब कुछ होने के साथ-साथ अपनी वर्जनाएं भी हैं ।
साधारण व्यक्तित्व के मालिक पतिदेव को उसका चंचल
स्वभाव पसंद नहीं था , उसकी खिलखिला कर हँसने की
आदत उनकी नजर में फूहड़ता थी तो सबसे घुलमिल कर
बात करने का स्वभाव निहायत ही मूर्खतापूर्ण हरकत ।
मायके में सब की चहेती खूबसूरत सी छवि
का सजना - संवरना भी उन्हें पसंद नहीं... अपने आपको
भूल कर पति के साँचे में ढलने के प्रयास में चंचल निर्झर से
स्वभाव वाली छवि संगमरमरी प्रतिमा ही तो लग रही थी । अचानक गुंजन के रूप में अतीत को सामने देख वह अपने
पर से नियंत्रण खो बैठी और व्यथा आँखों से बह निकली ।
मोहित और अनन्या के वापस आ जाने से दोनोंं की बातों का सिलसिला वहीं थम गया और बातों का केन्द्र बिन्दु बच्चे बन
गए । अनन्या प्यारी सी बच्ची थी जो सेवन्थ स्टैंडर्ड में पढ़
रही थी । अपने घर के वातावरण के अनुसार बच्ची भी गंभीर स्वभाव की थी । सांझ होने से पहले फिर से मिलने का वादा
ले और खुद का ख्याल रखने की हिदायत दे वह मोहित के
साथ घर लौट आई ।
रात में सोने से पहले बच्चे ने होमवर्क पूरा किया कि नहीं , यह जानने के लिए वह मोहित का बैग चेक कर रही थी तभी
मोहित ने आज जो कुछ नया देखा और सीखा उसके लिए
जिज्ञासु स्वभाव के अनुरूप प्रश्न पूछा -- मम्मी मूल
अधिकार -- समानता ... स्वतंत्रता .. और...और…,अनन्या
दीदी पढ़ रही थी बुक में..बताओ ना क्या... और क्या होता है ?
मैं तो भूल भी गया..,.गुंजन सोच रही थी -- "अधिकारों-कर्तव्यों
की शिक्षा की पौध छोटी कक्षाओं से आरम्भ होकर शिक्षा
के उच्चतम स्तर तक पहुँचती हुई वटवृक्ष सी बनती है….
मगर किताबों के पन्नों से व्यवहारिकता के धरातल पर उन्हें
पाने के लिए कितने सागर..पर्वत और मरूस्थल लांघने पड़ते
हैं । महिलाओं के लिए नंगे पैरों का यह सफ़र कठिन ही नहीं
दुसाध्य भी है । कितनी हैं ऐसी जो यह सफ़र तय कर लेती हैं
और कितनी ही बीच राह ...हौसला छोड़ देती हैं ।"
कंधे को हिलाता मोहित अपनी माँ की तंद्रा भंग करने की
कोशिश कर रहा था ।
***
भावपूर्ण और सुंदर सृजन
ReplyDeleteवाह
उत्साह वर्धन हेतु हार्दिक आभार सर!
Deleteबहुत ही सुन्दर लिखा है अपने। बाकी व्यक्ति अगर हंसना और लोगो से बोलना ही छोड़ दे तो जरूरत पड़ने पर कोई भी नहीं पूछेगा।
ReplyDeleteआपकी प्रतिक्रिया सदैव सृजनात्मकता के लिए संबल होती है ।हार्दिक आभार ।
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 07 फरवरी 2021 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनन्द पर सृजन सम्मिलित करने के लिए हृदय से आसीम आभार दिव्या जी!
Deleteबहुत अच्छी लघुकथा रची है मीना जी आपने । यही जीवन का यथार्थ है - केवल महिलाओं के लिए ही नहीं, स्वप्नदर्शी तथा आदर्शवादी पुरुषों के लिए भी ।
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने..आपकी संवेदनशील प्रतिक्रिया से लेखन को सार्थकता मिली । उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार जितेन्द्र जी!
Delete"परिपक्वता का संबंध शायद बचपन के मैत्रीपूर्ण संबंधों से दूरी और खुद की गृहस्थी में रम जाने से ही है "
ReplyDeleteसही लिखा है आपने....गृहस्थी के साथ ही नौकरी या कहिए कैरियर भी...बहुत बढ़िया कथा..
बधाई ❤️
आपकी हृदयस्पर्शी स्नेहिल प्रतिक्रिया से लेखनी का मान बढ़ा
Deleteबहुत बहुत आभार प्रिय वर्षा जी🙏❤️🙏
किताबों के पन्नों से व्यवहारिकता के धरातल पर उन्हें
ReplyDeleteपाने के लिए कितने सागर..पर्वत और मरूस्थल लांघने पड़ते
हैं । महिलाओं के लिए नंगे पैरों का यह सफ़र कठिन ही नहीं
दुसाध्य भी है । कितनी हैं ऐसी जो यह सफ़र तय कर लेती हैं
और कितनी ही बीच राह ...हौसला छोड़ देती हैं ।"
बिलकुल सही कहा आपने,हमारी पीढ़ी की महिलाओं सफर तब भी मुश्किल था और आज भी है,
कभी कभी लगता है आज की पीढ़ी ही सही है,विचारणीय लघु कथा,सादर नमन मीना जी
लघुकथा की मर्मस्पर्शी समीक्षा के लिए हृदय से असीम आभार कामिनी जी!सादर नमन ।
Deleteआदरणीय मीना जी, ये विषय स्त्री जीवन का बड़ा ही मार्मिक विषय है, हम स्त्रियाँ इसे कमतर आँक कर जीवन सहजता से गुजारने की कोशिश करते हैं,परंतु हम खुद के अस्तित्व को धीरे धीरे ख़त्म कर देते हैं, जो अंत में हमारी विवशता का कारण बनता है..सार्थक कहानी के लिए आपको हार्दिक शुभकामनाएँ..
ReplyDeleteप्रिय जिज्ञासा जी, आपकी समीक्षात्मक प्रतिक्रिया ने लेखन का मान बढ़ाया । आपकी चिन्तनपरक अनमोल प्रतिक्रिया के लिए हृदय से असीम आभार🙏🌹🙏
Deleteकड़वा है किन्तु सत्य लिए हुए। कहानी बहुत अच्छी लगी।
ReplyDeleteकहानी का मर्म आपको अच्छा लगा ..लेखनी सफल हुई। हार्दिक आभार वीरेन्द्र जी!
Deleteआदरणीया मीना जी, विचार करने को बाध्य करती है कहानी कि क्यों आज भी बहुत सी स्त्रियों का यही हाल होता है, विवाह के बाद। लेकिन यह भी सच है कि स्त्री चाहे तो इन वर्जनाओं को तोड़कर अपना मुकाम खुद हासिल कर सकती है। रास्ता काँटोंभरा अवश्य है। आप कभी मेरे ब्लॉग से 'बंदी चिड़िया' और 'पापा, आपने कहा था' ये दो रचनाएँ निकालकर पढ़िएगा।
ReplyDeleteआभार मीना जी आपकी स्नेहिल उपस्थिति हेतु । आपका कथन सही है काँटो भरा सफर तय करना कठिन तो है मगर असंमव भी नहीं। आपकी दोनों रचनाएँ पढ़ी । बौद्धिकता और भावुकता के मिश्रण ने मन मोह लिया । बहुत बहुत आभार आपका ये रचनाएँ पढ़वाने हेतु ।
Deleteजी दी बेहद सराहनीय लिखा है आपने।
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी।
भले ही असहमति हो पर सत्य यही है कि स्त्रियों के लिए ज़माने की सोच कभी नहीं बदली। सोच बदलने के नाम पर सिर्फ़ नियम कायदों के शब्दों में फेल-बदल ही किया गया है।
आपका लेखन सदैव विचारों को उद्वेलित करता है।
प्रणाम दी।
सादर।
आपकी सारगर्भित समीक्षात्मक प्रतिक्रिया के लिए हृदय की गहराईयों से आभार श्वेता जी! सस्नेह...,
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 08 फ़रवरी 2021 को 'पश्चिम के दिन-वार' (चर्चा अंक- 3971) पर भी होगी।--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
चर्चा मंच पर सृजन सम्मिलित करने के लिए हृदय से असीम आभार रवीन्द्र सिंह जी!
Deleteउम्दा व विचारणीय रचना
ReplyDeleteउत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार सर!
Deleteबहुत ही सुंदर सृजन दी।
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी सृजन।
जीवन की ऊहापोह में औरत स्वयं का अस्तित्त्व भूल जाती है। इसमें दुःख वाली कोई बात भी नहीं क्योंकि यही सचा सुख भी है। अल्हड़पन ही सब कुछ नहीं,कोई तो हो दायित्त्व बोध वाला। पता नहीं में ग़लत हूँ या सही मुझे ऐसी ज़िंदगी पसंद है।
सादर
प्रिय अनीता जी आपके विचार और संवेदनशील समीक्षात्मक प्रतिक्रिया अनमोल है मेरे लिए । हृदय की गहराईयों से असीम आभार। सस्नेह...,
Deleteमहिलाओं के लिए नंगे पैरों का यह सफ़र कठिन ही नहीं
ReplyDeleteदुसाध्य भी है । कितनी हैं ऐसी जो यह सफ़र तय कर लेती हैं
और कितनी ही बीच राह ...हौसला छोड़ देती हैं ।" सशक्त कथानक व प्रभावशाली लेखन- - साधुवाद आदरणीया मीना जी ।
आपकी हृदयस्पर्शी प्रतिक्रिया से लेखनी का मान बढ़ा..हृदय से असीम आभार शांतनु सर!
Deleteबहुत ही बढ़िया, सुंदर लघु कथा है, मन को छूने वाली मीना जी, सभी के विचारों से मैं भी सहमत हूँ, नमन
ReplyDeleteआपकी हृदयस्पर्शी प्रतिक्रिया से लेखनी का मान बढ़ा..हृदय से असीम आभार ज्योति जी!
ReplyDeleteसुंदर और सार्थक लघु-कथा
ReplyDeleteसुन्दर सराहना भरी प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार मनोज जी!
Deleteमार्मिक कहानी, एक न एक दिन सभी को अपनी भूल का अहसास होता है, बाधा को अवसर में बदलना भी तो स्त्रियों को ही आता है
ReplyDeleteआपकी अनमोल और हृदयस्पर्शी प्रतिक्रिया के लिए आभारी हूँ अनीता जी ।
Deleteबहुत बढ़िया..
ReplyDeleteसादर प्रणाम
स्वागत है आपका🙏 आपकी सुन्दर सराहनीय प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार ।
Deleteबेहतरीन सृजन
ReplyDeleteहार्दिक आभार सरिता जी!
Deleteबहुत अच्छी पोस्ट \आपको हार्दिक बधाई और शुभकामनायें
ReplyDeleteआपकी सराहना भरी प्रतिक्रिया से लेखन का मान बढ़ा । बहुत बहुत आभार🙏🙏
Deleteमर्मस्पर्शी लघु कथा । विवाहोपरांत एक लड़की का जीवन बदलता है लेकिन उसके पूरे अस्तित्त्व को ही खत्म कर देना उसके प्रति अन्याय है । कर्तव्य के साथ अधिकार को खोना नही चाहिए । विचारणीय प्रस्तुति ।
ReplyDeleteआपकी सारगर्भित सराहना भरी प्रतिक्रिया के लिए आभारी हूँ मैम! हृदयतल से हार्दिक आभार🙏🙏
Deleteभाव पूर्ण सराहनीय रचना |
ReplyDeleteहार्दिक आभार आलोक सर!
Deleteमगर किताबों के पन्नों से व्यवहारिकता के धरातल पर उन्हें पाने के लिए कितने सागर..पर्वत और मरूस्थल लांघने पड़ते हैं । महिलाओं के लिए नंगे पैरों का यह सफ़र कठिन ही नहीं दुसाध्य भी है ।
ReplyDeleteस्त्रीपक्ष की यथार्थ एवं प्रभावी प्रस्तुति...
बहुत अच्छी, मर्मस्पर्शी कथा मीना भरद्वाज जी 🌹🙏🌹
अपनी रचना पर आपकी सराहना भरी प्रतिक्रिया देखना सदैव सुखकर लगता है शरद जी । आपका हार्दिक धन्यवाद🌹 🙏🌹
Deleteबहुत सुन्दर लघुकथा,दिल को छू गईं ।
ReplyDeleteआपकी सराहना भरी प्रतिक्रिया से लेखन का मान बढ़ा मधुलिका जी । बहुत बहुत आभार ।
Deleteप्रिय मीनाजी नारी मन के भावनाओं से भरे यथार्थ को दर्शाती मर्म कथा। हार्दिक शुभकामनाएं🙏🙏
ReplyDeleteआपकी स्नेहिल उपस्थिति से सृजन को मान मिला ...हार्दिक आभार रेणु जी 🙏🙏
Deleteकृपया सही कर लें------
ReplyDeleteमंडली गुलजार हो जाया करता----++
हो जाया करती ☺
एक बड़ा सा थैंक्यू.... सही कर लिया😊🙏🌹
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