ऐसा नही कि कभी तुम्हारी याद आई ही नही , आई ना.., जब कभी किसी कशमकश में उलझी ,जब कभी खुद के वजूद की तलाश हुई । सदा तुम्हीं तो जादू की झप्पी बनी , कभी फोन पर , तो कभी प्रत्यक्ष रूप में । तुम , तुम हो इसका अहसास सदा तुम्हारी अनुपस्थिति में हुआ । मुझे सदा यही लगा कि हर समस्या का हल है तुम्हारे पास । मैं तुम से कुछ कहूँगी अगले ही पल तुम जैसे कोई जादुई छड़ी घुमाओगी और परेशानी फुर्र ..। बचपन से सदा अलाहद्दीन का चिराग समझा तुम्हें.., वह अनवरत बोले जा रही थी धारा-प्रवाह.. ‘अगला जन्म यदि होता है तो…, तो मैं यही जन्म फिर से जीना चाहूंगी । तुम सदा ऐसी ही रहना ,अगले जन्म में भी ।'
-- "देखो ऊपर वाले ने जो करना है वो उसे ही करने दो वो उसी का काम है हम सीमाओं में बँधे प्राणी हैं । और हाँ तुम कहाँ आज भावनाओं में बह रही हो तुम्हारी अपनी सीमाएँ और बंधन
हैं । किसी की छाया में बंध कर मनुष्य का सम्पूर्ण विकास कहाँ हो पाता है । अपनी व्यक्तिगत पहचान के लिए स्वयं की सक्षमता और उसका अनुपालन ही मानव को सम्प्रभु सम्पन्न बनाता है ।
इस सम्प्रभुता का परित्याग कर स्वयं का अस्तित्व खो जाता है कहीं । 'मैं' हम में बदल कर विशद बने तो बेहतर है लेकिन कई बार अत्यधिक मोह का भाव सुकून की जगह पराश्रय का भाव भी पैदा कर देता है..,जरा इस विषय पर भी गौर करना ।"
मोह को सीमाओं में बाँध कर सहजता और निर्लिप्तता के साथ बात का समापन कर वह एक सन्यासी की तरह आगे
बढ़ गई ।
शायद सांसारिक व्यवहारिकता से थक कर ।