- “कैसे हो ? बहुत दिन हुए तुमसे बात नहीं हुई ?
हाल - चाल.., ठीक -ठाक ?” आदित्य के फ़ोन उठाते ही दूसरी ओर से उसके मित्र अनुज ने कुशल - क्षेम पूछी ।
आदित्य - “सब कुछ ठीक -ठाक मगर न जाने क्यों .., आजकल सूरज की रोशनी में नहाई SNN की झील में पड़ती परछाई और उसमें तैरते पक्षी मन में ऊर्जा नहीं भरते । सड़क पर दौड़ती गाड़ियों की तरह मन में विचारों का ट्रैफ़िक जाम सा रहता है । तुम सुनाओ.., तुम्हारे क्या हाल है?”
“फॉल्सम आजकल अपना नही बेगाना लगने लगा है
आदित्य ! चारों ओर बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को खा रही
हैं ।” उधर से आती आवाज गहरी हो गई ।
फ़ोन डिस्कनेक्ट नहीं हुए मगर दोनों के बीच संवाद का स्थान नीरवता ने ले लिया और चिन्ता में डूबी उनकी सांसें मानो वार्तालाप में सेतु का काम कर रही थीं । सुरसा के मुँह सरीखी फैलती महंगाई के बीच “आर्थिक मंदी” की भयावहता की सुनामी उनके बीच पसरी पड़ी थी ।
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