दिसम्बर की कड़ाके ठंड और उस पर ओस भरी हवाओं के साथ रुकती थमती बारिश…पिछले एक हफ़्ते से बिछोह की कल्पना मात्र से ही आसमां के साथ मानो बादल भी ग़मगीन हैं ।
जीवन का एक अध्याय पूरा हुआ । दूसरे चरण के आरम्भ के लिए बहुत कुछ छोड़ना है । जिसकी कल्पना
हर पल छाया की तरह मेरे साथ रही । गृहस्थी के गोरखधंधे भी अजीब हैं पिछले पाँच सालों से कम से कम सामान रखने के
फेर में न जाने कितनी ही चीजों को देख कर अनदेखा करती
आई हूँ कि जब इस शहर में रहना ही नहीं तो सामान भी बढ़ाना क्यों ? मगर सामान है कि सिमटने का नाम ही नहीं लेता ।
और अब सब से बड़ी समस्या जो मेरी प्रिय भी है मुँह खोले खड़ी
है मेरे सामने वह है मेरी किताबें …, कितनी ही किताबें संगी
साथियों को देने के बाद भी मेरे आगे रखी हैं जिनको साथ ले
जाना या छोड़ कर जाना दोनों ही काम दुष्कर है मेरे लिए ।जान-पहचान और संगी- साथियों से विदा के समय मेरी प्रतिक्रिया
कल क्या होगी कल पर छोड़ती हूँ । मगर आज मेरे हाथों बक्से
में बन्द होती मेरे एकान्तिक क्षणों की संगिनी अपनी समग्रता के साथ उपालम्भ भाव से जैसे मुझ से सवाल करती हैं -
बोली अबोली ~
काहे चली बिदेस
निष्ठुर संगी ।
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