अपने अध्यापन कार्य से जुड़ते ही मैंने एक लेख पढ़ाया था “सर्कस का खेमा” लेखक का नाम भूल गयी हूँ लेकिन विषयवस्तु की शुरुआत आज भी अच्छी तरह से याद है
लेखक कुछ लिख रहा था और दूर कहीं से आती सर्कस के खेमे की आवाजों और रंग बिरंगी रोशनियों ने उस का ध्यान भटका दिया था। अपने पहले कार्य को भूल कर लेखक ने सर्कस की आन-बान और शान का वर्णन करते हुए उसकी वर्तमान उपेक्षा और दुर्दशा का मार्मिक वर्णन किया था।
उस लेख को पढ़ते ही मुझे किशोरवय की सर्कस से जुड़ी
एक घटना याद हो आयी।
बरसों बाद अपने जन्म स्थान लौटने पर मेरी सहेलियों ने बड़ी गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया । एक दिन सीरी रोड की तरफ जाते हुए मुझे अपनी सहेलियों की सर्कस को लेकर चहक जैसे उन्हीं की दुनिया में ले गई – “इस जगह लगा था पंडाल, यहाँ स्कूटर के साथ फोटो खिंचवायी थी हमने और सुन…, बहुत सुन्दर सुन्दर लड़कियाँ थी सर्कस में मगर उनकी आँखों का खोयापन कुछ और ही कहानी कह रहा था। उस समय की कुछ सामाजिक वर्जनायें थी लड़कियाँ कहाँ बोल पाती थी आज की तरह।“मैंने तीन बार देखा एक बार माँ के साथ, दूसरी बार स्कूल से और तीसरी बार भुआ आयीं थीं उनके साथ। पागल है तू! थोड़े दिन पहले आ जाती ।” - जान्हवी ने अपना ज्ञान बघारते हुए कहा।वह अब भी सर्कस की दुनिया में ही खोयी थी । बरसों बाद मिली थीं हम मगर मेरे बारे मे सोचने की फ़ुर्सत ही कहाँ थी सबके पास। बरसों की मेरी अनुपस्थिति में क्या क्या खोया मैंने इसी तथ्य को बताना जरूरी था सबके लिए । वक्त के साथ सब कुछ समाता गया अतीत के गर्भ में …,मगर मैं कभी नहीं भूल पायी उस जगह को जहाँ खड़े होकर उन सबने सर्कस के बारे में बातें की थी | उस जगह को जब भी देखा मेरा मन हमेशा उस काल्पनिक संसार मे जा पहुँचा भले ही मैंने वह संसार न देखा हो।
शिक्षण कार्य से जुड़ने के बाद “सर्कस का खेमा” पढ़ाने का अवसर मिला तो पाठ पढ़ाते समय शायद मैं अपनी छात्राओं को भी उसी काल्पनिक संसार में ले गयी। पाठ की समाप्ति पर कक्षा में एक प्रश्न उछला- “आपने सर्कस
देखा है ?” और मैंने जवाब दिया था - “नही, मगर अवसर मिला तो देखूंगी जरूर।”
और अवसर भी मिला कुछ वर्ष बाद जब मैं अपने भाई के यहाँ महाराष्ट्र के एक शहर में थी तब । एक दिन स्कूल से आते ही भतीजी ने चिल्लाते हुए कहा – “सर्कस आया है हमारे स्कूल के पास। बहुत सारे लोग परदे लगा रहे थे। हम भी चलेंगे देखने ।” दूसरे दिन उनकी मेड ने आते ही कहा-“भाभी पंडाल बाँध रहे थे वो लोग, कल से "शो" चालू होगा।” मुझे लगा सर्कस के लिए चहक तो आज भी बाकी है कल मेरी सहेलियों में थी आज अमिता में है। दूसरे दिन मैं और भाई के दोनों बच्चे एक साथ चिल्लाये -"हमें सर्कस देखना है। भाई ने आश्चर्य के साथ कहा- “दी आप देखोगी ? मेरा मन बचपन के आंगन मे विचरण कर रहा था जिद्द थी भुआ और बच्चों की। हमें देखना ही है।पहले दिन और वह भी
पहला “शो”।
आखिर कार भाई को मानना पड़ा। खेमे मे घुसते ही गाड़ी, मोटरसाईकिल, स्कूटरों की कतारें देख कर मन जैसे झूम उठा। पंडाल का मुख्य “प्रवेशद्वार" भव्य दिख रहा था। नीचे मैरुन रंग की दरियाँ चारों तरफ दीवारों का आभास देते पर्दें, शनील से मंढ़ी कुर्सियाँ जहाँ वातावरण को राजसी रुप प्रदान कर रहे थे वहीं बड़े-बड़े पोस्टर आकर्षण का मुख्य केन्द्र बने हुए थे। उन में प्रदर्शित प्राणों को जोखिम में डालते युवक- युवतियों के साथ हाथियों, शेरों व पक्षियों के अद्भुत करतबों की तस्वीरें जैसे सर्कस के विषय को अनूठे ढंग से पेश कर रही थी | यह सब देखकर जैसे मैं मन्त्रमुग्ध हो उठी और तभी लाडली भतीजी ने हाथ खींचा – “भुआ अन्दर चलो” उसकी आवाज सुनकर मैं उस स्वप्निल कल्पनालोक से बाहर निकली।
मुख्य मंच जहाँ करतब दिखाए जाने वाले थे वहाँ असंख्य कुर्सियाँ और सीढ़ीनुमा तख्ते बड़े करीने से लगे थे। बीचों -बीच विशाल तम्बू जिसमें ऊँचाई पर रस्सों के सहारे बंधे झूले, गोल आकार का बड़ा सा जाल, आर्केस्ट्रा पर बजती "मेरा नाम जोकर" की धुन जिस ने पूरे वातावरण को सर्कसमय बना रखा था लेकिन पूरे पंडाल में मुश्किल से सौ- डेढ़ सौ आदमी। मैं सोचने को मजबूर हुई कि इतनी मेहनत और तैयारी आखिर किस लिए? "शो" शुरु हुआ- रस्सियों और झूलों पर कलाबाजियाँ खाते शरीर, काँच की शीशियों और काँच की पट्टियों पर व्यायाम का प्रदर्शन करते हुए एकाग्रता का उदाहरण पेश करते युवा चेहरे। आग के साथ खतरनाक करतब दिखाते जाँबाज, सुन्दर कन्याओं के इशारों पर दाँतों तले अगुँली दबाने के लिए मजबूर करने वाले पक्षियों के करतब, हाथी की सूण्ड के सहारे खतरनाक खेल पेश करती परी सी सुन्दर कन्या, सत्यम् शिवम् सुन्दरम् की धुन पर भगवान शिव की आरती करते हाथी सभी कुछ तो संगीत की मधुर धुनों के साथ आलौकिक और अद्भुत था | समय कैसे पंख लगा कर बीता मुझे पता ही नही चला। "शो" की समाप्ति पर मैंने आधी से अधिक खाली पड़ी पंडाल की कुर्सियों को भारी मन से देखा और बाहर निकलते हुए भाई के स्वर को सुना जो झल्लाते हुए कह रहा था कितने मच्छर खा गए। भतीजी का जोश ठण्डा पड़ गया था-"पापा इस से अच्छा था हम मूवी देख आते।“ उनकी बातें सुनकर मुझे फिर याद आया " सर्कस का खेमा" जो कभी मैंने पढ़ाया था।
घर की तरफ लौटते हुए मैं सोच रही थी की सचमुच दयनीय दशा हो गयी है इस कला की। जिस तरह शानो शौकत और भव्य रूप में इस कला को कलाकार मंचित करते हैं उसका प्रतिदान उन्हे मिल ही नहीं पाता ।लोगों का रूझान हमारी इस पुरातन कला से हट गया है। मनोरंजन की दुनिया के इस खेल से कितने प्राणी जुड़े हैं जो इस कला को जीवित रखने के लिए अथक प्रयास करते हैं मगर आज की भागती पीढ़ी की भौतिकवादी संस्कृति में इन सब बातों का अर्थ कहाँ? चंद लोग आज भी इस कला से जुड़े है और अपनी रोजी-रोटी के लिए इसे अपनाये हुए हैं मगर अब यह कला लगभग नष्टप्राय: है । जरुरत है इसे पुन: पोषित और संवर्धित करने की ।
***